विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व की 80 प्रतिशत जनसंख्या अपने रोगों के उपचार के लिएजड़ी बूटियों पर निर्भर है। जड़ी बूटी के लगातार दोहन एवं इसकी बढ़ती मांग के कारण इनका कृषिकरण काफी समय से सफलतापूर्वक हो रहा है। औषधीय पौधे से निर्मित दवाईयां न केवल रोग को दूर करती है बल्कि इनका कोई भी दुष्प्रभाव शरीर पर नहीं होता है एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली जिन राष्ट्रों ने पहले अपनाई उसे दुष्प्रभाव भी उन्हें ही पहले भोगने पड़ रहे हैं। हर साल कई एलोपैथिक दवाएं प्रतिबंधित होती है जबकि आज तक एक भी आयुर्वेदिक दवाएं प्रतिबंधित करने की आवश्यकता नही पड़ी। पूरे विश्व में औषधीय पौधों से निर्मित दवाओं की प्राथमिकता मिल रही है। यही कारण है कि विश्व में जड़ी-बूटियों की मांग तेजी से बढ़ रही है। झारखंड में विभिन्न प्रकार के जलवायु के कारण कई तरह के औषधीय पौधों की खेती की जा सकती है।
भारत के राष्ट्रपति के अनुसार सं 2020 टी इसे विश्व के विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा होना है। योजना आयोग ने इसके लिए 3 काम सुझाए हैं – ग्रामीण विकास, रोजगार के संसाधनों का तीव्र गति से विकास तथा विदेशी मुद्रा भण्डार में 20 गुणा बढ़ोत्तरी। ये सभी औषधीय पौधों के उत्पादन से प्राप्त हो सकता है।
पिछले कई वर्षो से भारत का किसान घाटे में जा रहा है इसके कई कारण है – कृषि लागत की बढ़ोत्तरी, उत्पादन की गुणवत्ता में कमी, उत्पादकता की कमी, तैयार फसल के समय उचित मूल्य नहीं मिलना। महँगे रासायनिक खाद कीटनाशकों के उपयोग में बढ़ोत्तरी, उन्नत बीजों का ज्यादा लागत, प्रतिकुल परिस्थितियाँ, किसान को घाटे की ओर ले जाती है। इसके विपरीत औषधीय पौधों की खेती किसान के लिए लाभदायक सिद्ध हो रही है। इसका कारण है कि औषधीय पौधों के लिए अधिक खाद की आवश्यकता नहीं, रोग एवं कीड़े भी कम लगते हैं। हरित क्रांति के कार्यक्रम में अत्यधिक रासायनिक खाद एवं रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग से कृषि भूमि, भू-गर्भीय जल, नदियों, वायु एवं पर्यावरण दूषित हो गया। परिणाम यह हुआ कि अनाज, सब्जी, फल, फूल, दूध, दही, चारा प्रदूषित हो गया। औषधीय पौधे एवं मशाले जो देश से निर्यात हो रहे हैं वे रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों से विमुक्त है। विकसित देशों ने यह निर्णय लिया है कि विकासशील देशों से केवल उन्हीं चीजों का आयात करेंगे जो शत प्रतिशत जैविक खेती द्वारा ही उत्पादित हो। जड़ी बूटियों में रासायनिक खाद या रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग करना बिल्कुल उचित नहीं है। अत: उनकी खेती पूर्णतया नैसर्गिक विधि से होना चाहिए तभी गुणवत्ता बनी रहेगी और दुनिया में मन चाही कीमत मिल सकेगी।
जड़ी बूटी की खेती पूर्णरूपेण जैविक होने के साथ ही इसके प्रमाणीकरण भी होना चाहिए। प्रमाणीकृत औषधि का मूल्य अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ज्यादा हो जाता है। अत: गाँव-गाँव में सामूहिक जैविक खेती का प्रमाणीकरण कराना आवश्यक है। राष्ट्रीय खादी बोर्ड तथा एपीडा प्रमाणीकरण के शुल्क में कमी का प्रयास कर रहे है। भविष्य में इस शुल्क में कमी करके किसानों को जैविक खेती के प्रमाणीकरण से जोड़ना चाहिए।
औषधीय पौधों की खेती एवं संग्रह द्वारा समय-समय पर वैज्ञानिक तरीकों से सुखा कर प्रोसेसिंग करना जरूरी है। प्रोसेसिंग करने से जड़ी बूटियों की कीमत में काफी वृद्धि की जा सकती है। औषधि का तत्व, चूर्ण, एक्सट्रैपक्ट बनाकर विदेशों को निर्यात करना घरेलू उद्योगों को आपूर्ति की जा सकती है अत: जड़ी बूटियों को उद्योग के साथ जोड़ना आवश्यक है।
भारत में लगभग 60,000 टन रासायनिक जीवनाशी कृषि रासायनों का उपयोग प्रतिवर्ष किया जाता है। पौधा संरक्षण कृषि जीवनाशियों में डी.डी.टी., बी.एच.सी., एल्ड्रीन हेप्टाक्लोर, लिन्डेन आदि आर्गेनोक्लोरीन जैसे कीट नाशकों के अवशेष मिट्टी में बहुत समय तक विद्यमान रहते है। इन कीटनाशकों के अवशेष मिट्टी, अनाज, दालों, घी, दूध, मक्खन, मांस, मछली, अण्डों, फलों, सब्जियों, पशुओं के चारे और गहरे हैडपम्प तथा कई अन्य पदार्थो में पाये गये हैं। हाल ही में हुए अनुसंधान में पता चला है कि डीडीटी का छिड़काव करने पर इस कीटनाशी का भूमि में विद्यमान बैक्टीरिया के विघटन के बाद भी 20 वर्षो तक अवशेष भूमि में रह जाते हैं। ताम्बा युक्त वर्ग की फफूंदनाशियों का प्रयोग भूमि में करने पर 30 वर्षों तक विघटन नहीं होता है। पंजाब में हैंडपम्प के पानी में रासायनिक खादों से निकलने वाले नाईट्रोजन जैसे जहरीले पदार्थो के अवशेष अधिक मात्रा में मिले खाद्य पदार्थो और पानी के में जीवनाशी और खरपतवारनाशी व दूसरे जहरीले कृषि रासायनों के कारण मनुष्य के स्वास्थ्य पर कई तरह के दुष्प्रभाव देखने को मिल रहे हैं जिनमें आँखों का अंधापन, चर्म रोग, कैंसर, बांझपन, लीवर के रोग तथा अन्य रोग है।
स्रोत: समेति तथा कृषि एवं गन्ना विकास विभाग, झारखंड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020
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