उत्तर: औषधीय पौधों की खेती बड़े पैमाने पर नहीं होती है अत: उनमें रोगों का व्यापक प्रकोप भी नहीं होता है। औषधीय पौधों में लगने वाले रोगों पर अधिक काम नहीं हो पाया है। कुछ विशेष औषधीय पौधें, जिनकी खेती में प्रगतिशील किसान रूचि ले रहे है (जैसे – सफेद मूसली, अश्वगंधा, सर्पगंधा, रतन जोत, आँवला, शतावर, स्टेविया, नींबू घास इत्यादि) इनमें लगने वाले रोगों के बारे में सीमित जाकारी उपलब्ध हैं।
उत्तर: औषधीय पौधों में – (1) आर्द्रपतन, (2) म्लानि रोग, (3) सड़न रोग, (4) पत्र लांक्षण, (5) चूर्णिल फफूंद इत्यादि रोगों का प्रकोप हो सकता है। औषधीय पौधों में रोगों के जैविक प्रबंधन की ही आवश्यकता है। रासायनिक दवाओं का उपयोग करने से उनके औषधीय गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
उत्तर: जो औषधीय पौधे बिचड़ा उगाने के बाद रोपे जाते है उनमें एट्रोपा/बेलाडोना (गिल्टी पट्टी)नामक रोग का प्रकोप होता है। गिल्टी पट्टी, गुलदाउदी (पायरेथ्रम), अफीम, पुदीना इत्यादि औषधीय पौधों में आर्द्रपतन रोग एक प्रकोप देखा गया है। आर्द्रपतन रोग में या तो नर्सरी में बीज अंकुरित ही नहीं होते या अंकुरण के पश्चात झुक जाते हैं। इस रोग से बचाव के लिये बीज को ट्राइ कोडर्मा आधारित जैविक फफूंदनाशी (जैसे – मॉनिटर, संजीवनी, ग्लायोगार्ड इत्यादि) से उपचारित कर लेना चाहिये। जैविक फफूंदनाशी की 4 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज का उपचार करना चाहिये। नर्सरी खेत में थोड़ी ऊँचाई पर होनी चाहिये। मिट्टी बलुई होनी चाहिये ताकि पानी का जमाव नहीं हो सके। मिट्टी में अधिक नमी होने पर इस रोग का व्यापक प्रभाव होता है। जो औषधीय पौधे जड़ों से, कंद या प्रकंद से लगाये जाते हैं उनका उपचार भी ट्राइकोडर्मा आधारित जैविक कवकनाशी से करना चाहिए।
उत्तर:म्लानि या उखटा रोग के प्रकोप के कारण पौधे मुरझाकर सूख जाते हैं। रोगी पौधों की जड़ें काली हो जाती हैं। पत्थरचूर, सर्पगंधा, पुदीना, गुलदाउदी, भांग, धतूरा इत्यादि औषधीय पौधों में मुर्झा रोग का प्रकोप देखा गया है। यह रोग मृदा जनित है। म्लानि रोग से बचाव के लिये फसल चक्र अपनाना चाहिए। अंतवर्ती फसल लगानी चाहिये। गर्मी के महीनों में खेत की गहरी जुताई कर खुला छोड़ देना चाहिये एवं खेत में प्रचुर मात्रा में गोबर की सड़ी खाद, वर्मी कम्पोस्ट एवं खली का प्रयोग करना चाहिए।
उत्तर: जड़ सड़न या कंद सड़न रोग का प्रकोप पुदीना, गिल्टी पट्टी, अदरक इत्यादि फसलों में होता है। आँवला में फल सड़न रोग का प्रकोप होता है। रोग से बचाव के लिए, स्वस्थ पौधों से प्राप्त जड़ों एवं कंद को ही बोआई के लिए उपयोग में लाना चाहिए। फसल के रोगग्रस्त मलवे का निपटान भी आवश्यक है। खेत में प्रचुर मात्रा में गोबर की सड़ी खाद, कम्पोस्ट एवं खली का उपयोग करना चाहिए।
उत्तर: कई रोगजनकों के कारण पत्तियों पर रोग के दाग-धब्बे उभर आते हैं। सफेद मूसली, सर्पगंधा, इसबगोल, तुलसी, मेंहदी इत्यादि औषधीय पौधों में पत्रलांक्षण रोगों का प्रकोप होता है। रोग के धब्बे पत्तियों पर छा जाते हैं एवं पत्तियाँ सूख जाती है। चूर्णिल फफूंद रोग लगने से पत्तियों पर सफेद पाउडर बिखर जाता है। पत्र लांक्षण एवं चूर्णी फफूंद रोगों की रोकथाम के लिए नीम या नीम तेल पर आधारित जैविक कवनकाशी (अचूक, नीम गार्ड, ट्राईक्योर) की 3 से 5 मिलीमीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव की अनुशंसा की जाती है। छिड़काव रोग के प्रारंभिक लक्षण प्रकट होने पर करना चाहिए। रोग के जैविक निदान के लिए साफ़-सुथरी खेती, रोगग्रस्त मलवे का निपटारा एवं फसलचक्र अपनाना अत्यंत आवश्यक है। औषधीय पौधों के बीज अथवा बोआई में प्रयुक्त पौधों का अन्य भाग स्वस्थ पौधों से ही लेना चाहिए। उनका बोआई से पूर्व जैविक उपचार भी आवश्यक है।
स्रोत: समेति तथा कृषि एवं गन्ना विकास विभाग, झारखंड सरकार
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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