অসমীয়া   বাংলা   बोड़ो   डोगरी   ગુજરાતી   ಕನ್ನಡ   كأشُر   कोंकणी   संथाली   মনিপুরি   नेपाली   ଓରିୟା   ਪੰਜਾਬੀ   संस्कृत   தமிழ்  తెలుగు   ردو

मूली उत्पादन तकनीक

म.प्र. में गाजर एवं मूली की खेती प्रायः सभी जिलों में की जाती है। सामान्यतः सब्जी उत्पादक कृषक सब्जियों की अन्य फसलों की मेढ़ों पर या छोटे-छोटे क्षेत्रों में लगाकर आय अर्जित करते हैं। शीत ऋतु में ही कृषक दोनों फसलों को 50-60 दिन में तैयार कर पुनः बोवनी कर दो बार उपज प्राप्त कर लेते हैं। ये दोनों फसलें कम खर्च में अधिक उत्पादन देने वाली सलाद के लिए उत्तम फसलें हैं।जड़ वाली सब्जियों में इनका प्रमुख स्थान है। इनकी खेती सम्पूर्ण भारत वर्ष में की जाती है।

महत्व

मूली का उपयोग प्रायः सलाद एवं पकी हुई सब्जी के रूप में किया जाता है इसमें तीखा स्वाद होता है। इसका उपयोग नाश्ते में दही के साथ पराठे के रूप में भी किया जाता है। इसकी पत्तियों की भी सब्जी बनाई जाती है। मूली विटामिन सी एवं खनिज तत्व का अच्छा स्त्रोत है। मूली लिवर एवं पीलिया मरीजों के लिए भी अनुशंसित है।

जलवायु

मूली के लिए ठण्डी जलवायु उपयुक्त होती है लेकिन अधिक तापमान भी सह सकती है। मूली की सफल खेती के लिए 10-15 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम माना गया है।

भूमि

सभी प्रकार की भूमि उपयुक्त रहती है लेकिन रेतीली दोमट भूमि अधिक उपयुक्त रहती है।

भूमि की तैयारी

मूली के लिए गहरी जुताई की आवश्यकता होती है।एक जुताई मिट्‌टी पलटने वाले हल से करने के बाद 2-3 बार कल्टीवेटर चलाकर भूमि को समतल कर लें।

मूली की उन्नत किस्में

पूसा चेतकी


    वंशावली

    डेनमार्क जनन द्रव्य से चयनित

    जारी होने का वर्ष

    राज्य प्रजाति विमोचन समिति-1988

    अनुमोदित क्षेत्र

    सम्पूर्ण भारत

    औसत उपज

    250 कुन्तल/हेक्टेयर

    विशेषताएं

    पूर्णतया सफेद मूसली, नरम, मुलायम, ग्रीष्म-ऋतु की फसल में कम तीखी जड़ 15-22 से.मी. लम्बी, मोटी जड़, पत्तियां थोड़ी कटी हुई, गहरा हरा एवं उर्ध्वमुखी, 40-50 दिनों में तैयार ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु हेतु उपयुक्त फसल (अप्रैल-अगस्त)

    जापानी व्हाईट


    जारी होने का वर्ष

    केन्द्र द्वारा अनुशंसित विदेशी किस्म

    अनुमोदित क्षेत्र

    उच्च एवं निम्न पहाड़ी क्षेत्र

    औसत उपज

    25-30 टन/हे.

    विशेषताएं

    जड़ें सफेद लम्बी, बेलनाकार, एवं 60 दिनों में तैयार।

    पूसा हिमानी


    अनुमोदित वर्ष

    1970

    अनुमोदित क्षेत्र

    उच्च एवं निम्न पहाड़ी क्षेत्र

    औसत उपज

    32.5 टन/हेक्टेयर

    विशेषताएं

    जड़ें 30-35 से.मी. लम्बी, मोटी, तीखी,अंतिम छोर गोल नहीं होते सफेद एवं टोप हरे होते हैं। हल्का तीखा स्वाद एवं मीठा फ्लेवर, बोने के 50 से 60 दिन में परिपक्व, दिसम्बर से फरवरी में तैयार

    अन्य उन्नत किस्में

    जोनपुरी मूली, जापानी सफेद, कल्याणपुर, पंजाब अगेती, पंजाब सफेद, व्हाइट लौंग, हिसार मूली एवं संकर किस्मे आदि।

    पूसा रेशमी

    अनुमोदित वर्ष

    संपूर्ण भारत वर्ष

    औसत उपज

    32.5 टन/हेक्टेयर

    विशेषताएं

    जड़ें 30-35 से.मी. लम्बी, मध्यम मोटाई, शीर्ष में हरापन लिए हुए सफेद मोटी, तीखी होती है। यह किस्म बुवाई के 55 से 60 दिन में तैयार हो जाती है।

    खाद एवं उर्वरक

    150 क्विंटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट, 100 किलो नाइट्रोजन, 50 किलो स्फुर तथा 100 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर आवश्यक है। गोबर की खाद, स्फुर तथा पोटाश खेत की तैयारी के समय तथा नाइट्रोजन दो भागों में बोने के 15 और 30 दिन बाद देना चाहिए।

    विकल्प -1

    विकल्प-2

    विकल्प-3

    मात्रा कि.ग्रा/हे.

    मात्रा कि.ग्रा/हे.

    मात्रा कि.ग्रा/हे.

    यूरिया

    सु.फॉ.

    एम.ओ.पी.

    डी.ए.पी.

    यूरिया

    एम.ओ.पी.

    12:32:16

    यूरिया

    एम.ओ.पी.

    217

    313

    167

    109

    174

    167

    188

    168

    117

    बीज की मात्रा

    मूली के बीज की मात्रा उसकी जाति,बोने की विधि और बीज के आकार पर निर्भर करती है। 5-10 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर आवश्यक होता है।

    बुआई का समय

    मूली साल भर उगाई जा सकती है, फिर भी व्यावसायिक स्तर पर इसे सितम्बर से जनवरी तक बोया जाता है

    बुआई की विधि

    मूली की बुवाई दो प्रकार से की जाती है।

    (क) कतारों में

    अच्छी प्रकार तैयार व्यारियों में लगभग 30 से.मी. की दूरी पर कतारें बना ली जाती हैं। और इन कतारों में बीज को लगभग 3-4 सें.मी. गहराई में बो देते हैं। बीज उग जाने पर जब पौधों में दो पत्तियाँ आ जाती हैं तब 8-10 सें.मी. की दूरी छोड़कर अन्य पौधों को निकाल देते हैं।

    (ख) मेड़ों पर

    इस विधि में क्यारियों में 30 सें.मी. की दूरी पर 15-20 सेमी ऊंची मेड़ें बना ली जाती हैं। इन मेड़ों पर बीज को 4 से.मी. की गहराई पर बो दिया जाता है। बीज उग आने पर जब पौधों में दो पत्तियाँ आ जाएं तब पौधों को 8-10 सें.मी. की दूरी छोड़कर बाकी पौधों को निकाल दिया जाता है। यह विधि अच्छी रहती है। क्योंकि इस विधि से बोने पर मूली की जड़ की बढ़वार अच्छी होती हैं और मूली मुलायम रहती है।

    अंत सस्य क्रियाएं

    यदि खेत में खरपतवार उग आये हों तो आवश्यतानुसार उन्हें निकालते रहना चाहिए। रासायनिक खरपतवारनाशक जैसे पेन्डिमीथेलिन 30 ई.सी. 3.0 कि.ग्रा.1000 ली. पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 48 घंटे के अन्दर प्रयोग करने पर प्रारम्भ के 30-40 दिनों तक खरपतवार नहीं उगते हैं। निंदाई-गुड़ाई 15-20 दिन बाद करना चाहिए। मूली की खेती में उसके बाद मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। मूली की जड़ें मेड़ से ऊपर दिखाई दे रही हों तो उन्हें मिट्टी से ढक दें अन्यथा सूर्य के प्रकाश के सम्पर्क से वे हरी हो जाती हैं।

    सिंचाई एवं जल निकास

    बोवाई के समय यदि भूमि में नमी की कमी रह गई हो तो बोवाई के तुरंत बाद एक हल्की सी सिंचाई कर दें। वैसे वर्षा ऋतु की फसल मे सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं परन्तु इस समय जल निकास पर ध्यान देना आवश्यक हैं। गर्मी के फसल में 4-5 दिन के अन्तराल पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। शरदकालीन फसल में 10-15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करते हैं। मेड़ों पर सिंचाई हमेशा आधी मेड़ ही करनी चाहिए ताकि पूरी मेड़ नमीयुक्त व भुरभुरा बना रहे।

    प्रमुख कीट एवं रोग

    माहू

    हरे सफेद छोटे-छोटे कीट होते हैं। जो पत्तियों का रस चूसते हैं। इस कीट के लगने से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। तथा फसल का उत्पादन काफी घट जाता है। इसके प्रकोप से फसल बिकने योग्य नहीं रह जाती है। इस कीट के नियंत्रण हेतू मैलाथियान 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से लाभ होता है। इसके अलावा 4 प्रतित नीम गिरी के घोल में किसी चिपकने वाला पदार्थ जैसेचिपकों या सेण्ड़ोविट के साथ छिड़काव उपयोगी है।

    रोयदार सूड़ी

    कीड़े का सूड़ी भूरे रंग का रोयेदार होता है। एवं ज्यादा संख्या में एक जगह पत्तियों को खाते हैं। इसके नियंत्रण के लिए मैलाथियान 10 प्रतिशत चूर्ण 20 से 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से सुबह के समय भुरकाव करनी चाहिए।

    अल्टरनेरिया झुलसा

    यह रोग जनवरी से मार्च के दौरान बीज वाली फसल पर ज्यादा लगता है। पत्तियों पर छोटे घेरेदार गहरे काले धब्बे बनते हैं। पुष्पम व फल पर अण्डाकार से लंबे धब्बे दिखाई देते हैं। प्रायः यह रोग मूली की फसल पर लगता है। इसके नियंत्रण हेतु कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें। नीचे की पत्तियों को तोड़कर जला दें। पत्ती तोड़ने के बाद मैन्कोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

    खुदाई

    जब जड़ें पूर्ण विकसित हो जायें तब कड़ी होने से पहले मुलायम अवस्था में ही खोद लेना चाहिए।

    उपज

    मूली की पैदावार इसकी किस्में, खाद व उर्वरक तथा अंतः सस्य क्रियाओं पर निर्भर करती हैं। मूली की औसत उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के करीब होती है।

    मूली का आर्थिक विश्लेषण

    लागत प्रति हेक्टेयर

    विवरण

    खर्चा(रु)

    खेत की तैयारी, जुताई एवं बुवाई का खर्चा

    2000

    बीज की लागत का खर्चा

    12000

    खाद एवं उर्वरक पर व्यय

    6900

    निंदा नियंत्रण पर व्यय

    4000

    कीट व्याधि नियंत्रण पर व्यय

    1500

    सिंचाई का व्यय

    4000

    खुदाई एवं सफाई पर व्यय

    6000

    अन्य

    2000

    कुल(रु)

    38400

    आय की गणना

    औसत उपज क्विं. हे

    ब्रिक्री दर

    सकल आय

    लागत

    शुद्ध आय

    200

    600

    120000

    34800

    81600

    बिक्री दर बाजार भाव पर निर्भर रहती है जो समय-समय पर बदलती है।

    स्त्रोत: मध्यप्रदेश कृषि,किसान कल्याण एवं कृषि विकास विभाग,मध्यप्रदेश

    अंतिम बार संशोधित : 2/22/2020



    © C–DAC.All content appearing on the vikaspedia portal is through collaborative effort of vikaspedia and its partners.We encourage you to use and share the content in a respectful and fair manner. Please leave all source links intact and adhere to applicable copyright and intellectual property guidelines and laws.
    English to Hindi Transliterate