मिट्टी में लगातार रसायनों के छिड़काव एवं रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती मांग ने पर्यावरण को प्रदूषित करने के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी घटाया है| इन रसायनों के प्रभाव से मिट्टी को उर्वरकता प्रदान करने वाले सूक्ष्म जीवों की संख्या में अत्यधिक कमी हो गयी है| जैसे कि, हवा से नाइट्रोजन खींचकर जमीन में स्थिरीकरण करनेवाले जीवाणु राइजोबियम, एजेटोबैक्टर, एजोस्पाइरलम, फास्फेट व पोटाश घोलनशील जीवाणु आदि| इसलिए मिट्टी में इन जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने हेतु इनके कल्चर का उपयोग जैविक खादों के साथ मिलाकर किया जाता है| किसी विशिष्ट उपयोगी जीवाणु/कवक/फुन्फंद/ को उचित माध्यम में (जो कि साधरणतः ग्रेनाइट या लिग्नाइट का चुरा होता है) ये जीवाणु 6 माह से एक वर्ष तक जीवित रह सकते हैं| सामान्यतः अधिक गर्मी (40 से ऊपर) में ये जीवाणु मर जाते हैं| जीवाणु कल्चर का भंडारण सावधानी पूर्वक शुष्क एवं ठंडी जगह पर करना चाहिए|
जीवाणु कल्चर को बीज या जैविक खादों के साथ मिलाकर मिट्टी में मिलाने पर खेत में इन जीवाणुओं की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है और नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है| नाइट्रोजन हेतु राइजोबियम, एजेटोबैक्टर, एसेटोबैक्टर, तथा फोस्फोरस हेतु फोस्फेट घोलनशील जीवाणु कल्चर का प्रयोग किया जाता है|
जैव-उर्वरक विभिन्न प्रकार के मिट्टी जनित रोगों के नियंत्रण में सहायक सिद्ध होते हैं| इसके अतिरिक्त जैव उर्वरकों से किसी भी प्रकार का प्रदुषण नहीं फैलता है और इसका कोई दुष्परिणाम भी देखने में नहीं आया है और न ही इसका प्रयोग करनेवालों पर इनका कोई दुष्प्रभाव देखा गया है| जैव-उर्वरकों के उपयोग करने से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता में कमी देखी जा सकती है| पिछले कुछ दशकों से निम्न कुछ प्रमुख जैव-उर्वरकों का प्रयोग किसानों द्वारा किया जा है |
नाइट्रोजन का अधिकाँश भाग (लगभग 80%) वायुमंडल में विद्यमान है| सूक्ष्म जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन को वायुमंडल से भूमि में पहुँचाने का एक माध्यम है| राइजोबियम दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियाँ बनाने की क्षमता रखने वाले उस जीवाणु का नाम है जो की वायुमंडल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर उसे पौधों तक पहुंचता है|
राइजोबियम कल्चर का प्रयोग दलहनी फसलों में किया जाता है| राइजोबियम
एक गतिशील जीवाणु होता है, जो आकार में 0.5 माइक्रोन लम्बे व दंडाकार आकृति का होता है| राइजोबियम कल्चर का उपयोग दलहनी फसलों में 5 से 10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से किया जाता है राइजोबियम कल्चर का उपयोग मिट्टी व बीज के उपचार के लिए किया जाता है|
मिट्टी के उपचार के लिए 750 ग्राम राइजोबियम कल्चर को छाया में 50 किलो ग्राम गोबर की सड़ी खाद में समान रूप से मिलाएं| एक एकड़ खेत के बीजों के उपचार के लिए 150 ग्राम राइजोबियम कल्चर को 300 मि०ली० पानी में घोलें| इसमें बीजों को अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखाकर तुंरत बो लेना चाहिए|
राइजोबियम कल्चर के प्रयोग से फसल का उत्पादन 20-30% तक बढ़ जाता है| राइजोबियम कल्चर के प्रयोग से भूमि में लगभग 30-40 किलो नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर तक बढ़ जाती है| यह आगामी फसलों के लिए बहुत उपयोगी होती है| राइजोबियम कल्चर से चना, मसूर, उड़द, मूँग, अरहर, मटर, मूंगफली, सोयाबीन, ढैंचा, सनई, सेम एवं अन्य सभी दलहनी फसलों को लाभ होता है|
एजोटोबैक्टर मृदा में पाया जाने वाला एक मृतजीवी जीवाणु है जो कि अदलहनी फसलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक है| यह जीवाणु लम्बे व अंडाकार आकृति के होते है| इसका उपयोग मुख्यतः धान एवं गेंहूँ की फसलों में किया जाता है| इसके प्रयोग से मिट्टी में 30-40 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर स्थिर हो जाती है| एजोटोबैक्टर का प्रयोग मिट्टी के उपचार, रोपाई एवं बीजों के उपचार के लिए किया जाता है|
एक एकड़ खेत की मिट्टी क उपचार के लिए 750 ग्राम एजोटोबैक्टर को छाया में 25 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद में समान रूप से मिलाएं व जुताई से पूर्व खेत में इसका छिड़काव करें|
रोपाई के समय 1 एकड़ के लिए 450 ग्राम एजोटोबैक्टर को 20-30 ली० पानी में घोल लें| रोपाई वाली पौध की जड़ों को इस घोल में 5 मिनट तक डुबोकर रोपाई करें|
बीजोपचार के लिए एजोटोबैक्टर की 300 ग्राम मात्रा को 300 ग्राम मात्रा को 300 मि०ली० पानी में घोलें| इसमें बीजों को अच्छी तरह से मिलाकर छाया में सुखाकर तुरंत बुवाई करें इसकी यह मात्रा 1 एकड़ के लिए पर्याप्त होती है|
एजोटोबैक्टर से पौधों को नाइट्रोजन के साथ-साथ कुछ विशेष प्रकार के हार्मोन एवं विटामिन्स भी मिलते हैं| एजोटोबैक्टर के प्रयोग से लगभग 10-15 किलोग्राम तक नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर नाइट्रेट में परिवर्तित होकर पौधों को मिल जाती है| इसके इस्तेमाल से फसल का उत्पादन भी लगभग 10-20 प्रतिशत तक बढ़ जाता है|
धान, गेंहूँ, जौ, बाजरा, सरसों, जूट ज्वार, केला, अंगूर, लीची, पपीता तरबूज, खरबूजा, एवं सब्जियाँ-आलू, टमाटर, गोभी, प्याज, भिन्डी मिर्च, इत्यादि को एजोटोबैक्टर से लाभ मिलता है|
यह जीवाणु गन्ने की फसल में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक है| एसीटोबैक्टर
लम्बा एंव आकार में 0.7-0.9x0.2 माइक्रोन होता है| यह अंततः सहजीवी के रूप में गन्ने की फसल में पाया जाता है| एसीटोबैक्टर फसलों व पौधों की जड़ों के आस-पास विखंडित होकर भूमि की नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलकर पौधों तक पहुंचाते हैं| एसीटोबैक्टर का प्रयोग मिट्टी व बीज उपचार के लिए किया जाता है|
मिट्टी के एक कोलोग्राम एसीटोबैक्टर एक एकड़ मिट्टी उपचार के लिए पर्याप्त होता है इसे 50 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर खेतों में डालें|
एक एकड़ भूमि में बीजोरोपन हेतु 500 ग्राम एसीटोबैक्टर से बीजों का उपचारण करने के बाद तुरंत बीज बो दें|
एसीटोबैक्टर से मिट्टी की उर्वरा शक्ति का विकास होता है| यह रासायनिक खाद के प्रयोग को कम करता है| यह गन्ने व चुकंदर की फसल में उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ उसमें शर्करा की मात्रा को भी बढ़ाता है|
एजोस्प्रिलम, एजोटोबैक्टर नामक जैव उर्वरक से काफी मिलताजुलता है| गर्म स्थानों पर उगाई जाने वाली फसलों में जैव उर्वरक का प्रयोग किया जाता है| इनका आकार सर्पिल एवं चक्र के समान होता है और माप में ये 0.7-2-3 माइक्रोन तक होता है|ये पौधों की जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं तथा सहचरी सहजीविता प्रदर्शित करते हैं| एजोस्प्रिलम का प्रयोग भूमि उपचार, बीजोपचार तथा रोपाई के समय भी किया जाता है|
मिट्टी के उपचार हेतु 1500 ग्राम एजोस्प्रिलम को 50 किलोग्राम गोबर की खाद में किसी छायादार स्थान पर समान रूप से मिलाएं| यह मिश्रण तथा रोपाई एक एकड़ भूमि भूमि के लिए पर्याप्त है|
बीजोपचार हेतु 150 मि०ली० पानी में 150 ग्राम एजोस्प्रिलम को घोलकर एक एकड़ क्षेत्रफल में बोए जाने वाले बीज को इससे उपचारित कर छाया में सुखाकर तुरंत बो दें|
रोपाई के लिए 500 ग्राम एजोस्प्रिलम को 20 लीटर पानी में घोलकर मिश्रण बनाएं व रोपाई वाली पौध की जड़ों को इस घोल में पांच मिनट तक डुबाकर रोपाई करें|
एजोस्प्रिलम से नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रक्रिया को बल मिलता है व फसल का उत्पादन अधिक होता है| एजोस्प्रिलम पौधों की वृद्धि में भी सहायक होता है| एजोस्प्रिलम जैव-उर्वरक से धान, बाजरा, ज्वार, गन्ना, मक्का, चीड़ के वृक्ष, एवं पुष्पीय पौधों में लाभ मिलता है|
नाइट्रोजन के साथ-साथ फास्फोरस भी पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्व है| प्रकृति में फास्फोरस हरी खाद, मिट्टी, पौधों तथा सूक्ष्म जीवों में पाया जाता अहि| फास्फोरस विभिन्न कार्बनिक एवं अकार्बनिक यौगिकों के रूप में मिलता है, परन्तु पौधे इस फास्फोरस का उपयोग नहीं कर पाते हैं| पौधों द्वारा फास्फोरस का अवशोषण मुख्य रूप से प्राथमिक ओर्थोफास्फेट आयरन के रूप में होता है|
मिट्टी में पाये जाने वाले लगभग सभी परपोषी सूक्ष्म जीव फास्फोरस विलयीकरण की क्षमता रखते हैं प्रकृति में मिलने वाले अनेक सूक्ष्म जीव वातावरण की फास्फोरस को घुलनशील अवस्था में बदलकर पौधों तक पहुंचाते हैं| ये सूक्ष्म जीव मुख्यतः विषमपोषी होते हैं| फास्फोरस विलयकारी सूक्ष्म जीवों में जीवाणु कवक तथा माइकोराइजा पाए जाते हैं| जीवाणुओं में मुख्यतः बैसीलस, स्यूडोमोनास, आर्थोबैक्टर, फ्यूजेरियम, एस्परजिलस, पेनिसिलियम, राइजोपस तथा स्ट्रेप्टोमाइसिस विलयकारी के रूप में पाए जाते हैं|
फास्फेट विलयकारी सूक्ष्म जीवों से निर्मित इस जैव उर्वरक में जीवाणु मिट्टी में मौजूदा अघुलनशील फास्फेट को घुलनशील बनाकर पौधों तक पहुंचाते हैं क्योंकि फास्फेट का 70-80 प्रतिशत भाग मिट्टी में स्थिर हो जाने के कारण यह पौधों तक नहीं पहुच पाता है| इस जैव उर्वरक से मृदा उपचार तथा बीजोपचार करने पर यह मिट्टी में मौजूदा अघुलनशील फास्फेट को घुलनशील फास्फेट में बदलकर पौधों की जड़ों तक पहुँचता है जो अवशोषित कर लिया जाता है| इन जैव उर्वरकों का प्रयोग मृदा उपचार, बीज उपचार, कंद उपचार तथा रोपाई के लिए किया जाता है|
मिट्टी उपचार- इसके लिए लगभग 1200 ग्राम जैव उर्वरक को 50 किलोग्राम गोबर खाद में मिलाकर समान रूप से मिट्टी में मिला दें और इसके तुरन्त बाद सिंचाई कर दें| जैव उर्वरकों की यह मात्रा एक एकड़ खेत उपचार के लिए पर्याप्त है|
बीज उपचार- इसके लिए 150 ग्राम जैव-उर्वरक को 150 मि०ली० पानी में घोलकर एक एकड़ में बोये जाने वाले बीज को इससे उचारित करें, फिर छाया में सुखाकर तुरंत बो दें|
कंद उपचार: एक एकड़ के खेत में कंद उपचार के लिए 450 ग्राम जैव उर्वरक को ४०-50 लीटर पानी में घोलकर एक एक एकड़ में बोये जाने वाले कद को 10 मिनट तक इसमें डुबोकर, तुरंत बुवाई करें|
रोपाई: रोपाई के लिए 300 ग्राम जैव उर्वरक को 150-20 लीटर पानी में घोलकर रोपाई वाली पौध की जड़ों को इस घोल में 10 मिनट तक डुबोकर फिर रोपाई करें|
जैव-उर्वरक से सभी फसलों एवं पौधों को लाभ पहुंचता है| इसके प्रयोग से फास्फेटिक खाद की मात्रा में कमी आ जाती है और फसल की उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है|
जैव उर्वरकों का भंडारण हमेशा ठन्डे स्थान पर करें व इसे सूर्य की रोशनी से बचाकर रखें| इनको रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों से अलग रखें| इनका प्रयोग पैकेट पर अंकित तिथि से पहले करें| जैव-उर्वरकों विशिष्ट फसल के लिए होता है| अतः फसल के हिसाब से ही जैव-उर्वरक का प्रयोग करें|
नील-हरित शैवाल तुरंत वाले प्रकाश संषलेषी सूक्ष्म जीव होते है, तो नाइट्रोजन के स्थितिकरण में सहायक हैं| नील-हरित शैवाल को “सायनोबैक्टरिया” भी कहा जाता है| सूक्ष्म जीव गुणात्मक रूप से जीवाणु वर्ग से अधिक विशिष्ठ होता है| इसलिए ये सायनोबैक्टरिया कहलाते हैं| सभी नील-हरित शैवाल नाइट्रोजन के स्थितिकरण में सहायक नहीं होते हैं| मिट्टी में पाई जाने वाली नील-हरित शैवाल प्रजातियाँ बड़े आकार की तथा संरचना में जटिल होती हैं|
नील-हरित शैवाल की कुछ प्रजातियाँ : एनिबिना एजोली, एनाबिना फर्टिलिसिया, एनाबिना लेवेन्छरी, नॉस्टॉक फॉरमीडियम, आसिलेटोरिया, ट्राइकोडेसियम, इत्यादि हैं| नील-हरित शैवाल की इन प्रजातियों में हीटरोसिस्ट युक्त व हीटरोसिस्ट रहित दोनों प्रजातियाँ शामिल है, नील-हरित शैवाल धान की फसल के लिए बहुत उपयोगी हैं|
एजोला विश्व भर में पाया जाने वाला एक निम्नवर्गीय पादप हैं| यह मुख्यतः स्वच्छ जल, तालाबों, गड्ढों तथा झीलों में पानी की सतह पर तैरता रहता है| भारत में पाई जाने वाली इसकी प्रजाति एजोला पिन्नोटा है, जिसमें नाइट्रोजन स्थितिकरण की क्षमता कम होती है इसीलिए इनके स्थान पर धान की फसलों के प्रयोग हेतु अन्य प्रजाति एजोला माइक्रोफिलाव केरोलिनिआना का प्रयोग किया जाता है है, जो कि अच्छी नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाली प्रजातियाँ हैं| इनसे फसल की बढ़वार भी तेजी से होती है|
एजोला का प्रयोग धान की फसल में किया जात है| एक एक एकड़ खेत के लिए पौध रोपने के 15 दिन बाद पानी लगाकर उसमें लगभग 10 किलोग्राम एजोला डाल देते हैं| इसके बाद खेत का पानी निकालकर इसे मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देते हैं| खेत में दुबारा पानी लगाने पर एजोला के बीज में अंकुरण प्रारंभ हो जाता है, जो कि आगामी फसल के लिए लाभप्रद होता है देश के अनेक भागों में एजोला का प्रयोग धान की फसल में हरी खाद के रूप में किया जाता है| यह नाइट्रोजन के स्थिरीकरण में सहायक है| जिसके फलस्वरूप धान में वृद्धि होती है|
पिछले कुछ वर्षों में जैव-उर्वरकों की आवश्यकता महसूस की गई है, क्योंकि इनके उपयोग से बढ़ते रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता में कमी देखी गयी है| यद्यपि जैव-उर्वरकों के प्रयोग से हम अच्छी एवं गुणवत्ता युक्त उपज प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु इसके बावजूद भी आजकल जैव उर्वरक आम किसान आम किसान तक नहीं पहुँच पाया है| किसान आज भी जैव उर्वरक के प्रयोग एवं इससे होने वाले लाभ से अनभिज्ञ है| इस ज्ञान को आम किसान तक पहुंचाने के प्रयास किये जाएँ तो किसानों को उचित लाभ मिल सकता है|
स्रोत: उत्तराखंड राज्य जैव प्रौद्योगिकी विभाग; नवधान्य, देहरादून
अंतिम बार संशोधित : 2/28/2020
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