किसी भी फलोद्यान की कामयाबी सही रोपण सामग्री की उपलब्धता पर निर्भर करती है। शुरुआती रोपण सामग्री पर ही आखिरी फसल की मात्रा और गुणवत्ता निर्भर करती है। शुरुआती वर्षों में अगर कोई भी गलती हो जाए, तो इसे बाद के वर्षों में दुरुस्त नहीं किया जा सकता और इसके कारण उत्पादकता व फलोद्यान मालिकों की आय को स्थायी नुकसान पहुंचेगा। फलों में अपेक्षित उत्पादकता न हासिल कर पाने में सबसे बड़ी दिक्कत असली बीजों और सही रोपण सामग्री की अनुपलब्धता है। रोपण सामग्री को लगातार वैज्ञानिक रूप से पैदा किए गए अधिक पैदावार वाले मातृ-पौध से लिया जाना चाहिए जो कीटों और रोगों से मुक्त हों।
नर्सरियों की कमियां
मातृ-पौध के बुनियादी लक्षण
मातृ-पौध का रखरखाव
खेत में प्रसार की सीमाएं
पॉली/नेट हाउसों का प्रसार
रूटिंग/पॉटिंग मिश्रण के घटक रूटिंग/पॉटिंग मिश्रण को निम्न घटकों से तैयार किया जाता है -
प्रसार
1. बीज
2. इनार्चिंग (अप्रोच ग्राफ्टिंग)
3. वेनियर ग्राफ्टिंग
4. सॉफ्टवुड ग्राफ्टिंग
5. पैच बडिंग
6. सॉफ्टवुड कटिंग
अस्थायी फलोद्यान की स्थापना
अधिक जानकारी के लिए कृपया संपर्क करें -
सेंट्रल इंस्टिट्यूट फॉर सब-ट्रॉपिकल हॉर्टिकल्चर
रहमनखेड़ा, पीओ काकोरी, लखनऊ - 227107टेलीफोन- (0522) 2841022-24फैक्स- (0522) 2841025
मधुमक्खी पालन एक कृषि आधारित उद्यम है, जिसे किसान अतिरिक्त आय अर्जित करने के लिए अपना सकते हैं।
मधुमक्खियां फूलों के रस को शहद में बदल देती हैं और उन्हें अपने छत्तों में जमा करती हैं। जंगलों से मधु एकत्र करने की परंपरा लंबे समय से लुप्त हो रही है। बाजार में शहद और इसके उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण मधुमक्खी पालन अब एक लाभदायक और आकर्षक उद्यम के रूप में स्थापित हो चला है। मधुमक्खी पालन के उत्पाद के रूप में शहद और मोम आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
आय बढ़ाने की गतिविधि के रूप में मधुमक्खी पालन के लाभ
उत्पादन प्रक्रिया
मधुमक्खियां खेत या घर में बक्सों में पाली जा सकती हैं।
1. मधुमक्खी पालन के लिए आवश्यक उपकरण
छत्ता: यह एक साधारण लंबा बक्सा होता है, जिसे ऊपर से कई छड़ों से ढंका जाता है। बक्से का आकार 100 सेंटीमीटर लंबा, 45 सेंटीमीटर चौड़ा और 25 सेंटीमीटर ऊंचा होता है। बक्सा दो सेंटीमीटर मोटा होना चाहिए और उसके भीतर छत्ते को चिपका कर एक सेंटीमीटर के छेद का प्रवेश द्वार बनाया जाना चाहिए। ऊपर की छड़ बक्से की चौड़ाई के बराबर लंबी होनी चाहिए और उसे करीब 1.5 सेंटीमीटर मोटी होनी चाहिए। इतनी मोटी छड़ एक भारी छत्ते को टांगने के लिए पर्याप्त है। दो छड़ों के बीच 3.3 सेंटीमीटर की खाली जगह होनी चाहिए, ताकि मधुमक्खियों को प्राकृतिक रूप में खाली जगह मिले और वे नया छत्ता बना सकें।
2. मधुमक्खियों की प्रजातियां
भारत में मधुमक्खियों की चार प्रजातियां पायी जाती हैं ये इस प्रकार से हैं:
डंकहीन मधुमक्खी (ट्राइगोना इरीडीपेन्निस): उपरोक्त के अलावा केरल में एक और प्रजाति है, जिसे डंकहीन मधुमक्खी कहा जाता है। इनके डंक अल्पविकसित होते हैं। ये परागण की विशेषज्ञ होती हैं। ये हर साल 300 से 400 ग्राम शहद उत्पादित करती हैं।
3. छत्तों की स्थापना
4. मधुमक्खियों की कॉलोनी की स्थापना
5. कॉलोनियों का प्रबंधन
6. शहद एकत्र करना
ग्रीक टोकरी का छत्ता
ग्रीक टोकरी का छत्ता एक पारम्परिक तकनीक है। यह अब भी प्रासंगिक है, क्योंकि इसे बनाने के लिए स्थानीय सामग्री तथा स्थानीय कौशल की आवश्यकता होती है।
बनावट
कैसे उपजाएँ
मलबरी रेशमकीट पालन
मलबरी रेशमकीट को विभिन्न जलवायु स्थितियों और विस्तृत क्षेत्र वाली मिट्टी में उगाया जा सकता है। बेहतर पद्धतियों को अपनाकर कोकुन की अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। लेकिन इसके लिए अधिक ऊपज देने वाली उत्तम किस्म की पत्ती का होना आवश्यक शर्त है। रेशमकीट का पालन लार्वा अवधि के दौरान पाँच विभिन्न चरणों से होते हुए होती है। लार्वा अवधि में उसे विशेष रूप से निर्मित रेशमकीट पालन शेड में रखा जाता है। साथ ही, उच्च कोटि का रेशम प्राप्त करने के लिए उचित समय पर प्रबंध और गहन देखभाल की जाती है।
मलबरी कृषि और रेशमकीट पालन की सर्वोत्तम पद्धतियाँ
पूरे पालन अवधि के दौरान रेशमकीट को काफी सावधानीपूर्वक देखभाल की जाती है और उसके भोजन के लिए उत्तम किस्म के मलबरी पत्ते का इस्तेमाल किया जाता है। बेहतर वातावरण का निर्माण और कृमि व बीमारियों से रक्षा इनके पालन की अन्य आवश्यक शर्त्ते हैं। रेशमकीट के लिए अनुकूल स्थितियाँ प्रदान करने के लिए एक अलग से पालनघर और पालन उपकरण व साधनों की आवश्यकता होती है। एक साल में 5 से 10 फसलों का पालन किया जा सकता है और प्रत्येक फसल की जीवन अवधि लगभग 70-80 दिनों की होती है।
मलबरी कृषि
1. मलबरी प्रज़ाति
वी-1 और एस-36 उच्च ऊपज़ देने वाली मलबरी प्रजाति है और रेशमकीट पालन के लिए अत्यंत उपयुक्त है। ये दोनों प्रजाति पोषक पत्ती प्रदान करती है जो रेशमकीट पालन में लार्वा के लिए अत्यंत आवश्यक है। इन दो प्रजातियों की विशेषताएँ निम्न हैं -
एस - 36 प्रज़ाति -
वी -1 प्रजाति -
2. रोपण पद्धति
वृक्षारोपण की व्यवस्था दो कतारों में की जाती है जहाँ (90+150 सें.मी) X 90 सें.मी या 60 सें.मी X 60 सें. मी. की दूरी उपयुक्त होती है। वृक्षारोपण की दोहरी कतार के लाभ इस प्रकार है-
3. गोबर एवं खाद का प्रयोग
4. सिंचाई
रेशमकीट पालन
1. संकरित रेशमकीट
आईवीएलपी के अंतर्गत सीएसआर-2 X सीएसआर-4 एवं द्विगुण संकरित (कृष्ण राजा) जैसे उन्नत बाइवोल्टाइन संकरित रेशमकीट की सिफारिश की गई है।
2. चावकी पालन
अण्डे के फूटने से लेकर परिपक्व अवस्था तक पहुँचने में एक रेशम कीट को पाँच अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। कीटों की दूसरी अवस्था युवा अवस्था या चावकी अवस्था कहलाती है। चूँकि यह प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति अधिक संवेदनशील होते और इसके संक्रमित होने की संभावना अधिक रहती इसलिए चावकी पालन हेतु विशेष ध्यान देने की जरूरत है। अतएव चावकी पालन केन्द्रों में नियंत्रित परिस्थितियों के भीतर पले रेशमकीट प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए।
3. बड़े उम्र में पालन
बड़े उम्र के कीटों का पालन तीसरे इनस्टार से शुरू होती है। ये कीड़े बहुत अधिक पत्तियाँ खाने वाले होते हैं।
4. पालन घर
मलबरी रेशमकीट पालन एक पूर्णतः घरेलू व्यवसाय है। इसके लिए 24-28 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान और 70-80 प्रतिशत आर्द्रता वाले मौसम की जरूरत होती है। इसलिए किफ़ायती ठंड वातावरण बनाये रखने के लिए दीवार व छत की बनावट के लिए उपयुक्त सामग्री का चयन, भवन का अभिसरण, निर्माण पद्धतियाँ, डिज़ाइन इत्यादि पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। आगे, पत्तियों की रख-रखाव, चावकी पालन, परिपक्व अवस्था पालन एवं मोल्टिंग के लिए पर्याप्त जगह उपलब्ध होनी चाहिए। साथ ही, उस स्थान की साफ-सफाई और रोगमुक्तीकरण व्यवस्था भी अच्छी तरह होनी चाहिए।
पालन के प्रकार और मात्रा के अनुसार पालन घर का आकार होनी चाहिए। 100 डीएफएल के लिए 400 वर्ग फीट क्षेत्रफल वाला सतह प्रदान किया जा सकता है (डीएफएल- डिज़िज़ फ्री लेइंग (रोग मुक्त स्थान), 1 डीएफएल = 500 लार्वा )।
5. पालन उपकरण
परिपक्व अवस्था वाले रेशमकीट उच्च तापमान, उच्च आर्द्रता और न्यूनतम स्तर वाले हवा के आवागमन व्यवस्था को सहन नहीं कर पाते हैं। इसलिए कमरे के तापमान को न्यूनतम स्तर पर बनाये रखने के लिए पालन घर में दो ओर से हवा के आने व जाने की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि रेशमकीट द्वारा छोड़े गये मल से उत्पन्न बड़ी मात्रा में गैस आसानी से बाहर निकल सके। 100 डीएफएल (50 हजार लार्वा) के लिए न्यूनतम उपकरण आवश्यकता को निम्न तालिका में दर्शाया गया है -
सारणी- 100 डीएफएलएस (50 हजार लार्वा) पालन हेतु अपेक्षित पालन उपकरण
क्रम संख्या |
सामग्री |
मात्रा |
1 |
शूट पालन रैक (40’ गुणे 5) 5 स्तरीय |
01 |
2 |
रोटरी माउंटेजेज़ या चंड्राइक |
35 |
3 |
पॉवर स्प्रेयर |
01 |
4 |
आर्द्रतामापी |
01 |
6. रोगमुक्त करना
पालन घर या उपकरणों को संक्रमणरहित बनाये रखने के लिए इसे दो बार साफ की जानी चाहिए। पहली बार पूर्ववर्ती फसल की तैयारी के तुरंत बाद 5 प्रतिशत ब्लिचिंग पाउडर से तथा दूसरी बार दूसरे फसल के दो दिन पहले 2.5 सैनिटेक (क्लोरीन डाई-ऑक्साइड) के घोल से साफ की जानी चाहिए। रोगमुक्त करने का सुझाव निम्न तालिका में दर्शाया गया है-
पालनघर एवं उपकरणों को संक्रमणरहित करने की तालिका
दिवस |
कार्य आदेश |
कार्यों का विवरण |
पूर्ववर्ती पालन की समाप्ति के बाद
|
01 |
रोगग्रस्त लार्वा, गले हुए खराब कोकुन को जमा कर जलाना |
02 |
रोटरी माउंटेज़ के फ्लास को जलाना और धुँआ द्वारा रोगमुक्त बनाना |
|
03 |
पालनघर एवं उपकरणों का पहली बार रोगमुक्तीकरण करना |
|
ब्रशिंग के 5 दिन पहले |
04 |
उपकरणों की धुलाई एवं सफाई |
05 |
उपकरणों को धूप में सुखाना |
|
ब्रशिंग के 4 दिन पहले |
06 |
पोषण को 0.3 प्रतिशत भुने हुए चूने से कीटाणु रहित बनाना (ऐच्छिक) |
ब्रशिंग के 3 दिन पहले |
07 |
पालनघर एवं उपकरण को दूसरी बार रोगमुक्त बनाना |
ब्रशिंग के 2 दिन पहले
|
08 |
पालनघर के सामने व आने-जाने के रास्ते को धूल-कण मुक्त बनाना |
09 |
हवा के आवागमन हेतु पालनघर की खिड़कियों को खुला रखना |
|
ब्रशिंग के एक दिन पहले |
10 |
ब्रशिंग हेतु तैयारी |
7. शूट पालन- एक किफायती उपाय
रेशमकीट पालन की इस पद्धति में अंतिम तीन अवस्थाओं का पालन एक स्वतंत्र पत्ती के स्थान पर मलबरी शूट देकर किया जाता है। पालन की यह सबसे किफायती पद्धति है जिससे 40 प्रतिशत तक पालन श्रम की बचत होती है। अन्य लाभ इस प्रकार है-
8. पोषण
9. बेड क्लीनिंग
अस्वस्थ लार्वा को हटाएँ और उसे 0.3 बूझा हुआ चूना विलयन में 2 प्रतिशत ब्लीचिंग पाऊडर में रखें।
बेड की सफाई करते समय पालन कक्ष में बेड को सतह पर इधर-उधर न फैलाएँ।
10. तापमान और आर्द्रता बनाये रखना
तीसरे अंतर्रूप लार्वा के लिए बेहतर तापमान 26 डिग्री सें, चौथे अंतर्रूप के लिए 25 डिग्री से. और 5 वें अंतर्रूप के लिए 24 डिग्री से. आदर्श तापमान है तथा उसी प्रकार तीसरे अंतर्रूप के लिए आर्द्रता 80 प्रतिशत तथा चौथे व 5 वें अंतर्रूप लार्वा के लिए 70 प्रतिशत आर्द्रता की आवश्यकता होती है।
एयर कूलर, रूम हीटर, चारकोल स्टोव, भींगी थैली या भीगी हुई रेत का उपयोग करते हुए कूलिंग, हीटिंग और आर्द्रता वाले उपकरणों का उपयोग कर आवश्यक तापमान और आर्द्रता बनाए रखे।
हवा के आवागमन से रेशमकीट के शारीरिक तापमान को घटाने में मदद मिलती है।
11. निर्मोचन के दौरान देखभाल
निर्मोचन अवधि के दौरान पालन घर में खुली हवा और शुष्कता की स्थिति बनाये रखे।
निर्मोचन के लिए कीड़ो के स्थिर होने के बाद बेड को धीरे से फैलाएँ तथा बेड को सूखा बनाए रखने के लिए बूझे हुए चूने के पाउडर का समान रूप से उपयोग करें।
अत्यधिक उतार-चढ़ाव वाले तापमान और आर्द्रता तथा तेज़ हवा या अधिक प्रकाश का इस्तेमाल न करें।
निर्मोचन से 95 प्रतिशत कीड़ो के बाहर आने के बाद भोजन दें।
12. साफ-सफाई की व्यवस्था
पालनघर में प्रवेश करने से पहले अपने हाथ-पैर अच्छी तरह धोएँ। हाथ-पैर को अम्लीय साबून से व स्वच्छ घोल में धोएँ (0.5 बूझे हुए चूने के घोल में 2-5 सैनिटेक/सेरिक्लोर या) फिर 0.3 प्रतिशत बूझे हुए चूने में 2 प्रतिशत ब्लीचिंग पाऊडर)
स्वच्छ घोल में हाथ धोएँ तथा रोगमुक्त कीडों को हटाने के बाद बेड की सफाई करें।
हर दिन रोगग्रस्त कीड़ों को बेसिन में उठाएँ और चूने के पाउडर तथा ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल करें तथा इन्हें दूर जगह ले जाकर गाड़ दें या अग्नि में जला दें।
रेशमकीट पालन के समय कक्ष को हवादार और साफ-सुथरा रखें।
13. बेड रोगाणुमुक्तक का प्रयोग
विज़ेता, विज़ेता ग्रीन एवं अंकुश आदि पाउडर रेशमकीट को बीमारी से बचाने के लिए रेशमकीट के शरीर तथा पालन स्थान का रोगाणुनाशक है। उपयोग की पद्धति इस प्रकार है-
पतले कपड़े में पाउडर ले और प्रत्येक निर्मोचन के बाद रेशमकीट पर 5 ग्राम/वर्ग फीट की दर से छिड़क दें। ऐसा बेड सफाई करने के चार दिन बाद तालिका में दर्शाये गये विधि के अनुरूप करें-
छिड़काव का समय |
रोगाणुनाशक |
ग्राम/वर्ग फीट बेड क्षेत्रफल |
100 डीएलएफएस हेतु अपेक्षित मात्रा |
तीसरे निर्मोचक के बाद व भोज़न से पूर्व |
विज़ेता/विज़ेता ग्रीन अंकुश |
5 |
900 ग्राम |
चौथे अंतर्रूप के तीसरे दिन |
विज़ेता अनुपूरक (खाद्य) |
3 |
600 ग्राम |
चौथे निर्मोचन के बाद भोजन देने से पूर्व |
विज़ेता/ विज़ेता ग्रीन/ अंकुश |
5 |
1200 ग्राम |
पाँचवे अंतर्रूप के दूसरे दिन |
विज़ेता अनुपूरक (खाद्य) |
3 |
1300 ग्राम |
पाँचवे अंतर्रूप के चौथे दिन |
विज़ेता/ विज़ेता ग्रीन/ अंकुश |
5 |
3000 ग्राम |
पाँचवें अंतर्रूप के 6ठे दिन |
विज़ेता खाद्य |
3 |
1800 ग्राम |
नोट- बारिश व ठंड के मौसम में मसकार्डिन रोग के नियंत्रण हेतु विज़ेता अनुपूरक की सिफारिश की गई है।
14. विकसित कीड़ो का आधार
ऐसे उच्च स्तर वाले कोकुन प्राप्त करने के लिए समय पर रेशमकीट लार्वा का आधार अत्यंत आवश्यक है। सातवें दिन पर पाँचवें अंतर्रूप में रेशमकीट परिपक्वता की स्थिति में आता है। अतः पोषण देना बंद करे और कोकुन के निर्माण हेतु जगह ढूँढ़े। ऐसे लार्वा को तुरन्त पकड़े और अवलम्बक पर आधार दें। ध्यान यह रखा जाना चाहिए कि माऊंटेज़ (आधार) पर लार्वा की संख्या प्रत्येक आधार की क्षमता से अधिक नहीं होनी चाहिए।
लार्वा जब कताई की अवस्था में हों तब कमरे का तापमान 24 डिग्री से.के आसपास होनी चाहिए और सापेक्ष आर्द्रता 60-70 प्रतिशत होनी चाहिए, साथ ही, उसमें खुली हवा की सुविधा होनी चाहिए। बेहतर गुणवत्ता वाले कोकुन उत्पादन हेतु रोटरी आधार की सिफारिश की गई है। 100 डीएफएलएस के माऊंटिंग कीड़ों के लिए लगभग 35 सेट रोटरी माऊंटिंग (आधार) की आवश्यकता होती है। रोटरी माउंटिंग को लटकाने के लिए अलग से बरामदा की आवश्यकता होती है।
15. कटाई एवं छँटाई
कोकुन फसल की छः दिन पर कटाई होती है। विकृत कोकुन को हटाएँ। खराब कोकुन की छँटनी के बाद गुणवत्ता के आधार पर उसका श्रेणीकरण करें। ठंड के मौसम में कटाई के लिए एक दिन अधिक का समय दे।
16. विपणन
कोकुन को बाजार दिन के ठंडे समय में सातवें दिन ले जाएँ। कोकुन को 30-40 किलो ग्राम क्षमता वाले नॉयलॉन बैग में रख कर ढ़ीले से बाँधनी चाहिए और उसे ऐसी गाड़ी में ले जाना चाहिए जिसमें उसे रखने के लिए शेल्फ या दराज़ बने हों।
17. कोकुन ऊपज़
100 डीएफएलएस से 60-70 कि. ग्राम की औसत ऊपज़ होती है। एक साल में एक एकड़ मलबड़ी गार्डन में लगभग 700-900 किलो ग्राम कोकुन की फसल उगाई जा सकती है।
नर्सरी में शहतूत की पैदावार की नई विधि
शहतूत के पौधे छोटी अवस्था में कटिंग्स या फ्लैट बेड प्रणाली द्वारा वाणिज्यिक स्तर पर उत्पादित किए जाते हैं।
अंकुरण की सफलता और पौध की ताक़त प्रतिस्पर्धी खरपतवार, मिट्टी की नमी, और मिट्टी के तापमान से काफी हद तक प्रभावित होती है। चूंकि पानी और श्रम की उपलब्धता/ खरपतवार उन्मूलन में खर्च आजकल बाधा हैं, इन कठिनाइयों को दूर कर शहतूत की पैदावार करने के लिए पॉलिथीन शीट का उपयोग करते हुए एक नया तरीका विकसित किया गया है, जो व्यावहारिक व्यावसायिक उद्देश्य के लिए शहतूत के गुणवत्तापूर्ण पौधों के सफल उत्पादन के लिए कारगर साबित हुआ है।
विधि
30 से 40 सेमी गहराई तक भूमि जुताई और कृषि यार्ड खाद की 8 से 10 मीट्रिक टन मात्रा डालने के बाद, ज़मीन को समतल किया जाता है। दोनों ओर एक तीन चौथाई साझा सिंचाई नहर के साथ नर्सरी बेड तैयार किए जाते हैं।
15 फीट x 5 फीट आकार में काली पॉलिथीन शीट को काट कर बेड पर रखा जाता है और 6 से 8 माह पुराने रोग मुक्त शहतूत कटिंग महीने (3 कलियों के,15 से 20 सेमी लंबाई के) पॉलिथिन से ढंकी नर्सरी बेड की मिट्टी पर 10 सेमी x 10 सेमी की दूरी पर रखे जाते हैं। क्षेत्र की मिट्टी बनावट के आधार पर पोलीथीन पर ही चैनल से सिंचाई सप्ताह या 10 दिन में एक बार की जाती है।
लाभ
इस पद्धति द्वारा खरपतवार को पूरी तरह से रोका जा सकता है, क्योंकि उसे सूर्य का प्रकाश नहीं मिलता है। इस प्रकार, पूरी नर्सरी अवधि (चार माह) के दौरान खरपतवार उन्मूलन की आवश्यकता नहीं होती है, जिससे खरपतवार उन्मूलन के लिए श्रम के व्यय में भारी बचत होती है।
चूंकि बढ़ते शहतूत पौधों के मुकाबले के लिए कोई खरपतवार नहीं होती है, उन्हें अधिक से अधिक मिट्टी पोषक तत्व प्राप्त होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उच्च शक्ति और विकास होता है, और उच्च गुणवत्ता के पौधे मिलते हैं। अन्य विधियों के विपरीत, सिंचाई 50 प्रतिशत तक कम की जा सकती है, क्योंकि मिट्टी पर पॉलिथीन कवर मिट्टी का तापमान काफी कम कर देता है और पानी का वाष्पीकरण बचाकर मिट्टी की नमी का संरक्षण करता है।
आय
इस विधि से, चार महीनों में प्रति एकड़ 2.30 से 2.40 लाख पौधों का उत्पादन किया जा सकता है जिससे अन्य विधियों की तुलना में औसतन 50,000 रुपेय अधिक आय होती है।
उत्पादन लागत
कोकुन उत्पादन का आर्थिक विश्लेषण (प्रति एकड़)
मलबरी बगीचा की स्थापना लागत (प्रथम वर्ष)
क्र.सं |
विवरण |
मूल्य रुपये में |
1 |
जुताई कार्यक्रम |
1500.00 |
2 |
अंतिम रूप से भूमि की जुताई |
400.00 |
3 |
कृषि यार्ड खाद (8 टन) 500 रुपये/टन की दर से |
4000.00 |
4 |
मलबरी पौधे - 6000 छोटे पौधे 0.50 रुपये/पौधे की दर से |
3000.00 |
5 |
ट्रैक्टर के साथ क्यारी बनाना (4 घंटे) एवं पौध रोपण |
2000.00 |
6 |
उर्वरक (100 कि. ग्राम अमोनियम सल्फेट, 125 कि. ग्रा.सिंगल सुपर फॉस्फेट एवं 35 कि. ग्रा. पोटाश) |
1036.00 |
7 |
उर्वरक प्रयोग की लागत |
120.00 |
8 |
सिंचाई |
1500.00 |
9 |
घास-पात काटना ( तीन बार) |
1800.00 |
10 |
विविध खर्च |
500.00 |
|
कुल |
16056.00 |
मलबरी बगीचा का रख-रखाव (दो वर्ष पश्चात)
क्र.सं |
विवरण |
मूल्य रुपये में |
क |
संचालन लागत |
|
1 |
कृषि यार्ड खाद (8 टन) 500 रुपये/टन की दर से |
4000.00 |
2 |
उर्वरक की लागत (600 कि. ग्राम अमोनियम सल्फेट, 300 कि. ग्रा.सिंगल सुपर फॉस्फेट व 80 कि.ग्रा. पोटाश) |
5538.80 |
3 |
खाद एवं उर्वरक का प्रयोग |
1200.00 |
4 |
सिंचाई जल लागत |
5000.00 |
5 |
सिंचाई |
3600.00 |
6 |
घास-पात काटना |
3400.00 |
7 |
शूट हार्वेस्ट |
7200.00 |
8 |
पौधों की छँटाई व सफाई |
600.00 |
9 |
भू-राजस्व |
50.00 |
10 |
विविध व्यय |
500.00 |
11 |
कार्यगत पूँजी पर ब्याज |
621.00 |
|
कुल तरल लागत |
31710.58 |
ख |
स्थिर लागत |
|
|
मलबरी बगीचा की स्थापना का आनुपातिक लागत |
1070.42 |
|
कुल पत्ती उत्पादन लागत |
32781.00 |
|
पत्ती का लागत/कि. ग्राम |
1.64 |
300 डीएफएलएस के लिए पालन संपत्ति और भवन
क्रम संख्या |
पालन निर्माण / उपकरण |
अपेक्षित संख्या / मात्रा |
दर (रुपये में ) |
मूल्य (रुपये में) |
जीवन अवधि |
मूल्य ह्रास (रुपये) |
|
भवन |
|
|
|
|
|
1 |
बड़े उम्र का पालनघर (चावकी और शूट भंडार कक्ष सहित) वर्ग फीट |
1300 वर्ग फुट |
250.00 / वर्ग फुट |
325000.00 |
30 |
10833.33 |
2 |
बरामदा (वर्ग फीट में) |
300 वर्ग फुट |
50.00 /वर्ग फुट |
15000.00 |
15 |
1000.00 |
|
कुल |
|
|
340000.00 |
|
11833.33 |
|
उपकरण |
|
|
|
|
|
1 |
बिजली स्प्रेयर |
1 |
6000.00 |
6000.00 |
10 |
600.00 |
2 |
मास्क |
1 |
2000.00 |
2000.00 |
5 |
400.00 |
3 |
रूम हीटर |
3 |
750.00 |
2250.00 |
5 |
450.00 |
4 |
आर्द्रता-वाहक (ह्युमिडिफायर) |
3
|
1500.00 |
4500.00 |
5 |
450.00 |
5 |
गैस फ्लेम गन |
1 |
500.00 |
500.00 |
5 |
100.00 |
6 |
अंडा परिवहन बैग |
1 |
150.00 |
150.00 |
5 |
30.00 |
7 |
चावकी पालन स्टैंड |
2 |
500.00 |
1000.00 |
10 |
100.00 |
8 |
लकड़ी संपोषक ट्रे |
24 |
150.00 |
3600.00 |
10 |
360.00 |
9 |
पोषण स्टैंड |
1 |
100.00 |
100.00 |
5 |
20.00 |
10 |
पत्ती काटने का बोर्ड |
1 |
250.00 |
250.00 |
5 |
50.00 |
11 |
चाकू |
1 |
50.00 |
50 |
5 |
10.00 |
12 |
पत्ती कक्ष |
1 |
1000.00 |
1000.00 |
5 |
200.00 |
13 |
चीटी कुँआ |
42 |
25.00 |
1050.00 |
5 |
210.00 |
14 |
चावकी बेड सफाई नेट |
48 |
20.00 |
960.00 |
5 |
192.00 |
15 |
लिटर बास्केट/ विनाइल शीट |
2 |
250.00
|
500.00
|
2
|
250.00 |
16 |
प्लास्टिक बेसिन |
2 |
50.00 |
100.00 |
2 |
50.00 |
17 |
पत्ती संग्रहण टोकड़ी |
2 |
50.00 |
100.00 |
2 |
300.00 |
18 |
अंकुरण पालन रैंक (45 फीट 5X4टायर) |
2 |
1500.00 |
3000.00 |
10 |
50.00 |
19 |
नायलन नेट |
1 |
1500.00 |
1500.00 |
5 |
300.00 |
20 |
घुमाव वर्त ( माउंटेज ) |
105 |
240.00 |
25200.00 |
5 |
5040.00 |
21 |
प्लास्टिक अंड सेवन फ्रेम |
6 |
50.00 |
300.00 |
5 |
60.00 |
22 |
प्लास्टिक बाल्टी |
2 |
50.00 |
100.00 |
2 |
50.00 |
|
कुल |
|
|
54210.00 |
|
9737.00 |
|
कुल योग |
|
|
394210.00 |
|
21570.33 |
रेशमकीट पालन में निवेश और आमदनी
क्र.सं. |
विवरण |
लागत / राजस्व |
क |
तरल मूल्य |
|
1 |
पत्तियाँ |
32781.00 |
2 |
रोगमुक्त अंडा (1500 डीएफएल) |
4200.00 |
3 |
रोगाणुनाशक |
7425.00 |
4 |
श्रम 25 एम डी/100 डीएफएलएस की दर से |
16875.00 |
5 |
परिवहन एवं विपणन |
1580.00 |
6 |
अन्य लागत |
500.00 |
7 |
कार्यगत पूँजी पर ब्याज़ |
305.00 |
|
कुल तरल लागत |
63666.80 |
ख |
स्थिर लागत |
|
|
भवन एवं उपकरणों पर मूल्य ह्रास व स्थिर लागतों पर ब्याज |
21570.33 |
|
कुल लागत |
85237.13 |
ग |
राजस्व |
|
|
कोकुन उपज |
60.00 |
|
औसत कोकुन मूल्य |
120.00 |
|
कोकुन उत्पादन |
900.00 |
|
कोकुन से आय |
108000.00 |
|
सह उत्पाद से आय |
5400.00 |
|
कुल राज़स्व |
113400.00 |
|
शुद्ध राज़स्व |
28162.87 |
|
फायदा - मूल्य अनुपात |
1.33 |
www.indiansilk.kar.nic.in
http://www.seri.ap.gov.in/2_seri_tech.htm
http://www.seri.ap.gov.in/8_gallery.htm
चावकी पालन
चावकी पालन का मतलब है रेशमकीट पालन की पहली दो अवस्थाएँ। यदि चावकी कृमि का सही ढंग से पालन नहीं की गई तो बाद की अवस्था से फसल की हानि हो सकती है। इसलिए चावकी का पालन सही ढंग से की जानी चाहिए। इसके लिए उपयुक्त तापमान एवं आर्द्रता, स्वास्थ्य की स्थिति, मुलायम पत्तियाँ, बेहतर पालन सुविधाएँ तथा सभी तकनीकी कौशलों की आवश्यकता होती है।
वाणिज्य़िक चावकी पालन केन्द्र
वाणिज़्यिक चावकी पालन मॉडल को सीएसआरटीआई, मैसूर में स्थापित किया गया है जहाँ वर्ष में 32 बैचों में प्रति बैच 5 हज़ार की दर से 1 लाख 60 हज़ार (रोगमुक्त अंडज़) ब्रश करने की क्षमता उपलब्ध है। दो वर्ष तक इस मॉडल की सफलतापूर्वक परीक्षण के बाद देश में इस मॉडल को मुख्य रेशमकीट पालन उगाई क्षेत्रों में लोकप्रिय बनाया गया है।
वाणिज्य़िक चावकी पालन केन्द्र के लिए जरूरी चीजें
वाणिज़्यिक तौर पर चावकी पालन केन्द्र के लिए एक अलग चावकी सिंचित मलबरी गार्डन, आवश्यक सुविधाओं से युक्त चावकी पालन गृह तथा वैज्ञानिक पद्धति से चावकी पालन हेतु आवश्यक प्रशिक्षण/कौशल की आवश्यकता होती है।
रेशमकीट अंडे को ग्रेनेज़ेस या 120 से 150 एकड़ क्षेत्र वाले मलबड़ी गार्डन से प्राप्त किया जा सकता है जिसे 80 से 100 रेशमकीट विशेषज्ञों द्वारा देखभाल किया जाता है।
चावकी पालन और इससे संबंधित पद्धति के बारे में अधिक जानकारी के लिए केन्द्रीय रेशमकीट पालन अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, मैसूर से संपर्क करें।
आर्गेनिक तसर रेशम उत्पादन की विधियाँ
स्त्रोत: केन्द्रीय तसर अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान
केन्द्रीय रेशम बोर्ड( वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार)
नगड़ी, रांची – 835303 (झारखण्ड)
केंचुआ खाद
केंचुआ किसानों का दोस्त होता है जो खेत की मिटटी एवं खेत में स्थित फसलों के अवशेष को खाकर किसानों के लिए बहुमूल्य तत्व प्रदान करता है जिसे आम बोलचाल की भाषा में वर्मी कम्पोस्ट कहते हैं | वर्मी कम्पोस्ट में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, सूक्षम तत्व, एंजाइम, हार्मोन्स एवं मृदा सूक्षम जीवाणुओं की प्रचुरता रहती है | वर्मी कम्पोस्ट के प्रयोग से मृदा के भौतिक, रासयनिक एवं जैविक संरचना में परिवर्तन होता है जिससे न केवल मृदा पी.एच., जल धारण क्षमता एवं ह्यूमस की वृद्धि होती है बल्कि तसर भोज्य पौधों के पत्तियों की गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है |
केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट) बनाने की विधि
केंचुआ खाद बनाने के लिए एक गड्ढ़े की आवश्यकता होती है जिसका आकार आवश्यकतानुसार घटया-बढ़ाया जा सकता है लेकिन गड्ढ़े की गहरायी एक से डेढ़ मीटर रखना आवश्यक है | गड्ढ़े का तल एवं चारों दीवारें ईंट या कंक्रीट पक्का बनाना लाभदायक होता है इससे केंचुआ गड्ढ़े के बाहर नहीं जा सकेंगे तथा पोषक तत्वों का रिसाव भी नहीं होगा | गड्ढा तैयार होने के पश्चात तसर प्रक्षेत्र के अवशेषों जैसे आसन, अर्जुन की पत्तियां, अपतृण,घास, साल वृक्षों के फूल, पोआल आदि के छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर गोबर के साथ मिश्रण बनाकर गड्ढ़े में भरकर उपर से पुआल या खर-पतवार से ढक देते हैं | गड्ढ़े में चूना मिलाना लाभदायक है जो अवशेषों को सड़ाने में सहायक होता है | प्रति टन अवशेष के हिसाब से 10-12 कि० ग्रा० रॉक फास्फेट या सुपर फास्फेट या जलावन लकड़ी का अवशेष डालने से कम्पोस्ट की गुणवत्ता में सुधार होता है | गड्ढ़े में नमी बनायें रखने के लिए समय समय पर पानी का छिड़काव करना चाहिए | हर 15-20 दिनों के अंतराल में अवशेषों को उलट-पलट करना लाभदायक होता है | जब गड्ढे में स्थित अवशेष 50% से अधिक सड़ जाए तब केंचुआ की उन्नत प्रजाति “आईसिनिया फेटीडा” की पर्याप्त मात्रा कम्पोस्ट में छोड़ देनी चाहिए | इस प्रजाति केंचुआ बिना सुषुप्तावस्था में गये पूरे वर्ष वर्मी कम्पोस्ट बनाने की क्षमता रखते हैं | जबकि देशी प्रजाति का केंचुआ केवल वर्षा के मौसम में दिखाई देता है और वर्षा के पश्चात इस महीने में सुषुप्तावस्था में चला जाता है | जब गड्ढे में कम्पोस्ट पूर्ण रूप से दानेदार हो जाए तब कम्पोस्ट गड्ढे में पानी छिड़काव बंद कर देना चाहिए तथा सूखने के पश्चात वर्मी कम्पोस्ट को किसी छायादार वृक्ष के नीचे निकालकर रख देना चाहिए| केंचुओं को पुन: प्रयोग में लाने के लिए दो मी. मी. छेद वाली चलनी से छानकर केंचुआ को वर्मी कम्पोस्ट से अलग कर देना चाहिए |
वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग तसर भोज्य पौधों के चारों ओर थाल बनाकर 2 कि० ग्रा० प्रति वृक्ष की दर से करना चाहिए | वर्मी कम्पोस्ट कार्बनिक होने के साथ तसर खाद पौधों के लिए अधिक उपयोगी है | इसकी मांग किसानों द्वार भी वृहद रूप में की जा रही है | उपयोगिता की दृष्टि से रसायनिक खाद एवं वर्मी कम्पोस्ट का तुलनात्मक विवरण निम्नवत है :
रासायनिक खाद |
वर्मी कम्पोस्ट |
रासायनिक उर्वरक खाद काफी महंगे होते हैं | |
केंचुआ जैविक खाद अत्यधिक किफायती होता है | |
इसके निरंतर उपयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति, मृदा गठन एवं मृदा संरक्षण में काफी विपरीत प्रभाव पड़ता है जिससे जमीन की स्थिति ठीक नहीं रहती है| |
इस खाद के उपयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति में वृधि होती है तथा जमीन में काफी सुधार हो जाता है| |
रासायनिक खादों के उपयोग से पौधों की जल आवश्यकता ज्यादा होती है | |
इस खाद से फसलों में पानी की अधिक आवश्यकता नहीं होती है | |
इस खाद के उपयोग से विशेष तरह के अनाज का उत्पादन होता है | |
इस खाद के प्रयोग से सुरक्षित अनाज उत्पादन होता है और इसमें स्वाद और विटामिन अधिक मात्रा में पाया जाता है | |
इसके प्रयोग के लिए बाजार पर ही निर्भर रहना पड़ता है | |
इस तकनीक अवशिष्ट प्रबंधन के अंतर्गत वर्मी कम्पोस्ट एवं केंचुओं को बिक्री कर रोजगार के अवसर प्रदान करती है | और बाजार में इस खाद का मूल्य रू 2000/- प्रति टन है | |
कृत्रिम आहार पर तसर चाकी कीटपालन
तसर कृत्रिम आहार की आवश्यकता क्यों?
कृत्रिम आहार: कृत्रिम आहार में आसन/अर्जुन की कोमल पत्तियों का पाउडर, आर्गेनिक सामग्री के साथ मिला कर स्टैण्डर्ड प्रोटोकॉल बनाया गया है |
विधि:
तसर कीड़ों को ब्रशिंग के पहले ट्रे को 5% ब्लीचिंग पाउडर घोल से धोकर सूखा लें | ट्रे की पट्टी में अंदर की तरफ ब्राउन टेप चिपकाएं तथा उसके उपर ग्रीस की पतली तह लगाएं जिससे कीड़े ट्रे से बहार न जाएं | कृत्रिम आहार के छोटे-छोटे टुकड़े (5 x 1 से. मी.) काटकर ट्रे में फैला दें | अंडों से निकले कीड़ों को ट्रे में कृत्रिम आहार पर छोडें | सभी ट्रे को स्टैंड पर रखें | ट्रे के उपर अखबार रखें जिससे कीड़ों का लीटर दूसरी ट्रे में न जाए | ब्रशिंग के तीसरे या चौथे दिन यदि आहार कम पड़े तो डालें | चौथे दिन कीड़े प्रथम मोल्ट में जान शुरू कर देते हैं | पांचवे-छठवें दिन 80-90% कीड़े दूसरी अवस्था में आ जाते हैं| दूसरी अवस्था के दूसरे दिन अर्जुन, आसन की ताजी पत्तियां डालियाँ सहित ट्रे में रखें | तीसरे दिन सभी कीड़े पत्तियों में चले जाते हैं | कीड़े सहित डालियाँ खाध पौधों में 3.00 से 4.00 बजे शाम के बीच स्थानांतरित करें|
कृत्रिम आहार से लाभ:
चाकी जीवित प्रतिशत: 94.0% चाकी कीड़ों का वजन: 0.50(g) कोसा उत्पादन/ रो. मु. च. : 92
तसर रेसम कीटपालन में रोग नियंत्रण की आर्गेनिक विधि: लीफ सरफेस माइक्रोब ( एल. एस. एम.) रोगों का जैविक नियंत्रण
एल. एस. एम का घोल बनाने की विधि
एल. एस. एम का प्रभाव
रोगों की कमी : 44%
कोसा उत्पादन में वृधि / रोमुच : 12
लाभ-खर्च अनुपात : 1:6
लीफ सरफेस माइक्रोब की उपलब्धता
लीफ सरफेस माइक्रोब ऐम्प्यूल के रूप में केन्द्रीय तसर अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, रांची द्वारा मांग पर 40 रूपए प्रति ऐम्प्यूल की दर से वितरित की जाती है | एक ऐम्प्यूल 100 रो.मु.च. के कीटपालन के लिए पर्याप्त है |
तसर रेशम कीटपालन में रोग नियंत्रण की आर्गेनिक विधि: जीवन सुधा, एक वानस्पतिक उत्पाद
जीवन सुधा औषधियों पौधों से निर्मित एक वानस्पतिक उत्पाद है जो तसर रेसम कीट की वायरोसिस के नियंत्रण के लिए प्रयुक्त की जाती है | जीवन सुधा पाउडर जो 1.0% जलीय अर्क का कीटपालन में उपयोग रेशमकीट को वायरोसिस रोग से बचाता है | इसके उपयोग से कोसा फसल में 10 -12 कोसा/ रोगमुक्त चकता का फायदा होता है |
जीवन सुधा के अवयव
जीवन सुधा तीन औषधीय पौधों एलोवेरा(घृत कुमारी), एंड्रोग्रेफिस पेनिकुलेटा (कालमेघ) तथा फ़ाइलेन्थस निरुरी (भूमि आंवला) के पाउडर/ जैल का एक निश्चित अनुपात मिश्रण है |
जीवन सुधा बनाने की विधि
एक पैकेट को 200 रो.मु.च. के कीटपालन के लिए उपयोग करें
जीवन सुधा घोल बनाने की विधि
जीवन सुधा की खुराक तथा उपयोग का समय
200 रोग मुक्त चकतों के कीटपालन के लिए जीवन सुधा एवं पानी की मात्रा
लार्वा की अवस्था |
जीवन सुधा पाउडर (ग्रा.) |
पानी (ली.) |
पहली |
50 |
5 |
दूसरी |
100 |
10 |
तीसरी |
150 |
15 |
जीवन सुधा का प्रभाव
वायरोसिस में कमी : 37%
उत्पादन में वृधि :10-12 कोसा/ रो.मु.च.
लागत : रु 80.00/ 200 रो.मु.च.
लागत तथा लाभ अनुपात:1:6
आर्गेनिक सिल्क धागाकरण : एन्थेरिया माडइलिट्टा कूकनेज द्वारा तसर कोसा पाकने की विधि
एन्थेरिया माडइलिट्टा प्यूपा से तितली बनाते समय प्रोटियोलिटिक एन्जाइम कूकनेज का स्त्राव होता है जिससे कोसा का आग्र भाग मुलायम हो जाता है परिणामस्वरूप तितली बाहर आ जाती है | इसे कूकनेज एन्जाइम को इकठा* करने की विधि विकसित की गई है, जिसका कोसा पाकने में उपयोग किया जा रहा है |
परिणाम :
कूकनेज से पकाये कोसों से निकले धागे ऑर्गेनिक होते है जिसमें नैसर्गिक रंग बरकरार रहता है तथा इसका स्पर्श मुलायम रहता है | कूकनेज द्वारा कोसा पाकने की तकनीक विकसित की गई है| इसकी प्रभावी विधि एवं वाणिणज्यिक स्तर पर अच्छे सिल्क रिकवरी प्राप्त करने हेतु आनुसंधन कार्य जारी है |
कोसा पकाने में कूकनेज की महत्ता :
अध्ययन जारी है:
कूकनेज की तरह एक रसायन सेम (बीन) के फलियों में भी पाया गया है |
सेम के रस के उपयोग से कोसों को पकाने का परीक्षण किया जा रहा है |
सेम के रस तथा कूकनेज के मिश्रण के साथ-साथ तापमान / पी एच घाट-बढ़ाकर कोसों को पकाने तथा धागा परिक्षण जारी है |
केन्द्रीय तसर अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, नगड़ी , राँचीतसर रेशम कोसोत्तर प्रोधोगिकी एवं इसके विकास
उदेश्य:
सामान्य रुप से छत्तेदार खाद्य फफूँदी (कवक) को मशरुम या खुँभी कहते हैं।
झारखंड़ में इसे लोग प्रायः खुखड़ी के नाम से जानते हैं। प्रायः मशरुम में ताजे वजन के आधार पर 89-91 % पानी , 0.99-1.26 % राख, 2.78- 3.94% प्रोटीन, 0.25-0.65% वसा,0.07-1.67 % रेशा, 1.30-6.28% कार्बोहाइड्रेट और 24.4-34.4 किलो केलोरी ऊर्जामान होता है। यह विटामिनों जैसे –बी 1, बी 2, सी और डी. एवं खनिज लवणों से भरपूर होता है। यह कई बीमारियों जैसे-बहुमूत्र, खून की कमी, बेरी-बेरी, कैंसर, खाँसी, मिर्गी, दिल की बीमारी, में लाभदायक होता है। इसकी खेती
कृषि, वानिकी एवं पशु व्यवसाय सम्बन्धी अवशेषों पर की जाती है, तथा उत्पादन के पश्चात् बचे अवशेषों को खाद के रुप में उपयोग कर लिया जाता है। उत्पादन हेतु बेकार एवं बंजर भूमि का समुचित उपयोग मशरुम गृहों का निर्माण करके किया जा सकता है। इस प्रकार यह किसानों एवं बेरोजगार नवयुवकों के लिए एक सार्थक आय का माध्यम हो सकता है।
खेती का स्थान
साधारण हवादार कमरा, ग्रीन हाउस, गैरेज, बन्द बरामदा, पालीथिन के घर या छप्परों वाले कच्चे घरों में इसकी खेती की जाती है।
बीज (स्पॉन) अनाज के दानों पर बने उच्चगुणों वाले प्रमाणित बीज (स्पॉन) का ही व्यवहार करें । इसे बिरसा कृषि वि.वि. से प्राप्त कर सकते हैं।
प्रजातियाँ
कृत्रिम मशरुम घर में होने पर किसी भी मशरुम की खेती किसी भी समय हो सकती है। झारखण्ड के किसानों या उत्पादकों के लिए सामान्य कमरे के तापक्रम पर ढिगरी (प्लूरोटस) की खेती वर्ष के अधिकांश (9-10 माह) समय में हो सकती है।
ढिगरी (प्लूरोटस) की खेती की विधिः
उपजः प्रति किलों ग्राम सूखे पुआल / भूसे से लगभग 0.8-1 किलोग्राम ताजा मशरुम का उत्पादन होगा। बटन मशरुम तथा धान पुआल की खेती की विधि के लिये बिरसा कृषि वि.वि के पौधा रोग विभाग से संपर्क करें।
प्रति किलों ग्राम सूखे पुआल / भूसे से लगभग 0.8-1 किलोग्राम ताजा मशरुम का उत्पादन होगा। बटन मशरुम तथा धान पुआल की खेती की विधि के लिये बिरसा कृषि वि.वि के पौधा रोग विभाग से संपर्क करें।
साग-सब्जियों का हमारे दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है विशेषकर शाकाहारियों के जीवन में। शाक-सब्जी भोजन के ऐसे स्रोत है जो हमारे पोषक मूल्य को ही नहीं बढ़ाते बल्कि उसके स्वाद को भी बढ़ाते हैं। पोषाहार विशेषज्ञों के अनुसार संतुलित भोजन के लिए एक वयस्क व्यक्ति को प्रतिदिन 85 ग्राम फल और 300 ग्राम साग-सब्जियों की सेवन करनी चाहिए। परन्तु हमारे देश में साग-सब्जियों का वर्त्तमान उत्पादन स्तर प्रतिदिन, प्रतिव्यक्ति की खपत के हिसाब से मात्र 120 ग्राम है।
सब्जी बगीचा
उपरोक्त स्थितियों पर विचार करते हुए उपलब्ध स्वच्छ जल के साथ रसोईघर एवं स्नानघर से निकले पानी का उपयोग कर घर के पिछवाड़े में उपयोगी साग-सब्जी उगाने की योजना बना सकते हैं। इससे एक तो एकत्रित अनुपयोगी जल का निष्पादन हो सकेगा और दूसरे उससे होने वाले प्रदूषण से भी मुक्ति मिल जाएगी। साथ ही, सीमित क्षेत्र में साग-सब्जी उगाने से घरेलू आवश्यकता की पूर्ति भी हो सकेगी। सबसे अहम् बात यह कि सब्जी उत्पादन में रासायनिक पदार्थों का उपयोग करने की जरूरत भी नहीं होगी। अतः यह एक सुरक्षित पद्धति है तथा उत्पादित साग-सब्जी कीटनाशक दवाईयों से भी मुक्त होंगे।
सब्जी बगीचा के लिए स्थल चयन
सब्जी बगीचा के लिए स्थल चयन में सीमित विकल्प है। हमेशा अंतिम चयन घर का पिछवाड़ा ही होता है जिसे हम लोग बाड़ी भी कहते हैं। यह सुविधाजनक स्थान होता है क्योंकि परिवार के सदस्य खाली समय में साग-सब्जियों पर ध्यान दे सकते हैं तथा रसोईघर व स्नानघर से निकले पानी आसानी से सब्जी की क्यारी की ओर घुमाया जा सकता है। सब्जी बगीचा का आकार भूमि की उपलब्धता और व्यक्तियों की संख्या पर निर्भर करता है। सब्जी बगीचा के आकार की कोई सीमा नहीं है परन्तु सामान्य रूप से वर्ग की अपेक्षा समकोण बगीचा को पसंद किया जाता है। चार या पाँच व्यक्ति वाले औसत परिवार के लिए 1/20 एकड़ जमीन पर की गई सब्जी की खेती पर्याप्त हो सकती है।
सब्जी का पौधा लगाने के लिए खेत तैयार करना
सर्वप्रथम 30-40 सेंमी की गहराई तक कुदाली या हल की सहायता से जुताई करें। खेत से पत्थर, झाड़ियों एवं बेकार के खर-पतवार को हटा दें। खेत में अच्छे ढंग से निर्मित 100 कि.ग्राम कृमि खाद चारों ओर फैला दें। आवश्यकता के अनुसार 45 सेंमी या 60 सेंमी की दूरी पर मेड़ या क्यारी बनाएँ।
सब्जी बीज की बुआई और पौध रोपण
फसल पद्धति
भारतीय स्थितियों के अनुसार सब्जी बगीचा हेतु सहायक फसल पद्धति को निम्न रूप में दर्शाया गया है (पहाड़ी स्थानों को छोड़कर) –
प्लॉट संख्या |
सब्जी का नाम |
बुआई/रोपे जाने का महीना |
1 |
टमाटर एवं प्याज |
जून-सितम्बर |
|
मूली |
अक्तूबर-नवम्बर |
|
बीन |
दिसम्बर-फरवरी |
|
भिंडी (ओकरा) |
मार्च-मई |
2 |
बैगन |
जून-सितम्बर |
|
बीन |
अक्तूबर-नवम्बर |
|
टमाटर |
जून-सितम्बर |
|
अमरान्तस |
मई |
3 |
मिर्ची और मूली |
जून-सितम्बर |
|
लोबिया |
दिसम्बर-फरवरी |
|
प्याज (बेल्लारी) |
मार्च-मई |
4 |
भिंडी और मूली |
जून-अगस्त |
|
पत्तागोभी |
सितम्बर-दिसम्बर |
|
बीन |
जनवरी-मार्च |
5 |
बेल्लारी प्याज |
जून-अगस्त |
|
शक्कर कंद |
सितम्बर-नवम्बर |
|
टमाटर |
दिसम्बर-मार्च |
|
प्याज |
अप्रैल-मई |
6 |
बीन |
जून-सितम्बर |
|
बैगन और शक्करकंद |
अक्तूबर-जनवरी |
7 |
बेल्लारी प्याज |
जुलाई-अगस्त |
|
गाजर |
सितम्बर-दिसम्बर |
|
कद्दू (छोटा) |
जनवरी-मई |
8 |
लब-लब (झाड़ी की तरह) |
जनवरी-अगस्त |
|
प्याज |
सितम्बर-दिसम्बर |
|
भिंडी |
जनवरी-मार्च |
|
धनिया |
अप्रैल-मई |
बारहमासी खेत
सब्जी बगीचा निर्माण के आर्थिक लाभ
व्यक्ति पहले अपने परिवार का पोषण करता उसके बाद बेचता है। आवश्यकता से अधिक होने पर उत्पाद को बाजार में बेच देता है या उसके बदले दूसरी सामग्री प्राप्त कर लेता है। कुछ मामले में घरेलू बगीचा आय सृजन का प्राथमिक उद्देश्य बन सकता है। अन्य मामले में, यह आय सृजन उद्देश्य के बजाय पारिवारिक सदस्यों के पोषण लक्ष्य को पूरी करने में मदद करता है। इस तरह, यह आय सृजन और पोषाहार का दोहरा लाभ प्रदान करता है।
अपशिष्ट या कूड़ा-करकट का मतलब है इधर-उधर बिखरे हुए संसाधन। बड़ी संख्या में कार्बनिक पदार्थ कृषि गतिविधियों, डेयरी फार्म और पशुओं से प्राप्त होते हैं जिसे घर के बाहर एक कोने में जमा किया जाता है। जहाँ वह सड़-गल कर दुर्गंध फैलाता है। इस महत्वपूर्ण संसाधन को मूल्य आधारित तैयार माल के रूप में अर्थात् खाद के रूप में परिवर्तित कर उपयोग में लाया जा सकता है। कार्बनिक अपशिष्ट का खाद के रूप में परिवर्तन का मुख्य उद्देश्य केवल ठोस अपशिष्ट का निपटान करना ही नहीं अपितु एक उत्तम कोटि का खाद भी तैयार करना है जो हमारे खेत को उचित पोषक तत्व प्रदान करें।
कृमि खाद में स्थानीय प्रकार के केंचुओं का प्रयोग किया जाता है –
दुनियाभर में केंचुओं की लगभग 2500 प्रजातियों की पहचान की गई है जिसमें से केंचुओं की पाँच सौ से अधिक प्रजाति भारत में पाई जाती है। विभिन्न प्रकार की मिट्टी में भिन्न-भिन्न प्रकार के केंचुए पाए जाते हैं। इसलिए स्थानीय मिट्टी में केंचुओं की स्थानीय प्रजाति का चयन कृमि खाद के लिए अत्यंत उपयोगी कदम है। किसी अन्य स्थानों से केंचुआ लाये जाने की जरूरत नहीं है। भारत में सामान्यतौर पर जिन स्थानीय प्रजाति के केंचुओं का उपयोग किया जाता है उनके नाम पेरियोनिक्स एक्सकैवेटस एवं लैम्पिटो मौरिटी है। इन केंचुओं को पाला जा सकता है या फिर इसे गड्ढों, टोकरी, तालाबों, कंक्रीट के बने नाद घर या किसी कंटेनर में सामान्य पद्धति से कृमि खाद बनाने में उपयोग में लाया जा सकता है।
स्थानीय केंचुओं को संग्रहित करने की विधि -
कृमि खाद गड्ढे का निर्माण
कृमि खाद गड्ढे को किसी भी सुविधाजनक स्थान या घर के पिछवाड़े या खेत में निर्मित किया जा सकता है। यह किसी भी आकार का ईंट से निर्मित और उचित जल निकासी युक्त, एक गड्ढे वाला या दो गड्ढे वाला या टैंक हो सकता है। 2 मीटर X 1 मीटर X 0.75 मीटर के आकार वाले कक्ष या गड्ढे की आसानी से देखभाल की जा सकती है। जैव पदार्थ और कृषि अपशिष्ट की मात्रा के आधार पर गड्ढों और चैम्बर्स के आकार को निर्धारित किया जा सकता है। कृमि को चीटियों के हमले से बचाने के लिए कृमि गड्ढे की पैरापेट दीवार के केन्द्र में जल-खाना का होना जरूरी है।
चार कक्ष वाला टैंक/गड्ढा पद्धति
कृमि खाद गड्ढे निर्माण की चार कक्ष वाली पद्धति, केंचुओं को पूर्ण गोबर युक्त पदार्थ वाले एक कक्ष से पूर्व प्रसंस्कृत अपशिष्ट वाले दूसरे चैम्बर में आसानी से आवाजाही की सुविधा प्रदान करता है।
कृमि सतह का निर्माण
खाद के तैयार होने का समय
कृमि खाद के लाभ
शुष्क पुष्प क्यों
शुष्क पुष्प निर्माण की तकनीक
शुष्क पुष्क उत्पादन के दो महत्वपूर्ण चरण है-
फूलों के काटने व सुखाने का उचित समय
फूलों की सुबह के समय पौधों पर से ओस की बूंदें सूखने के बाद करनी चाहिए। काटने के बाद उसे रबड़ बैंड की मदद से गुच्छे में रख दिया जाना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके, धूप से हटा देनी चाहिए।
सूर्य की रोशनी में सुखाना
जमा कर सुखाना
दबाना
ग्लिसरीन तकनीक
पॉलिसेट पॉलिमर
सिलिका सोख्ता
रंगाई
फूल और पौधों के भाग
गुलदस्ता
शुष्क पुष्प गमले
शुष्क पुष्प हस्तकला
गेंदा की खेती
गेंदा बहुत ही उपयोगी एवं आसानी से उगाया जाने वाला फूलों का पौधा है। यह मुख्य रूप से सजावटी फसल है। यह खुले फूल, माला एवं भू-दृश्य के लिए उगाया जाता है। मुर्गियों के दाने में भी यह पीले वर्णक का अच्छा स्त्रोत है। इसके फूल बाजार में खुले एवं मालाएं बनाकर बेचे जाते है। गेंदे की विभिन्न ऊॅंचाई एवं विभिन्न रंगों की छाया के कारण भू-दृश्य की सुन्दरता बढ़ाने में इसका बड़ा महत्व है। साथ ही यह शादी-विवाह में मण्डप सजाने में भी अहम् भूमिका निभाता है। यह क्यारियों एवं हरबेसियस बॉर्डर के लिए अति उपयुक्त पौधा है। इस पौधे का अलंकृत मूल्य अवि उच्च है क्योंकि इसकी खेती वर्ष भर की जा सकती है। तथा इसके फूलों का धार्मिक एवं सामाजिक उत्सवों में बड़ा महत्व है। हमारे देश में मुख्य रूप से अफ्रीकन गेंदा और फ्रेंच गेंदा की खेती की जाती है।
गेंदा पीले रंग का फूल है। वास्तव में गेंदा एक फूल न होकर फूलों का गुच्छा होता है, लगभग उसकी हर पत्ती एक फूल है। गेंदा का वैज्ञानिक नाम टैजेटस स्पीसीज है। भारत के विभिन्न भागों में, विशेषकर मैदानों में व्यापक स्तर पर उगाया जा रहा है। मैक्सिको तथा दक्षिण अमेरिका मूल का पुष्प है। हमारे देश में गेंदे के लोकप्रिया होने का कारण है इसका विभिन्न भौगोलिक जलवायु में सुगमतापूर्वक उगाया जा सकता है। मैदानी क्षेत्रों में गेंदे की तीन फ़सलें उगायी जाती है, जिससे लगभग पूरे वर्ष उसके फूल उपलब्ध रहते हैं। उत्तर भारत के राज्य हिमाचल प्रदेश में छोटे किसान भी गेदें की फ़सलों को सजावट तथा मालाओं के लिए करते हैं उगाते हैं।
इतिहास
16वीं शताब्दी की शुरुआत में ही गेंदा, मैक्सिको से विश्व के अन्य भागों में प्रसारित हुआ। गेंदे के पुष्प का वैज्ञानिक नाम टैजेटस एक गंधर्व टैजस के नाम पर पड़ा है जो अपने सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध था। अफ्रीकन गेंदे का स्पेन में सर्वप्रथम प्रवेश सोलहवीं शताब्दी में हुआ और यह रोज आफ दी इंडीज नाम से समस्त दक्षिणी यूरोप में प्रसिद्ध हुआ। फ्रेंच गेंदे का भी विश्व में प्रसार अफ्रीकन गेंदे की भांति ही हुआ।
गेंदे का विवरण
गेंदे को विभिन्न प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है। इसकी खेती मुख्य रूप से बडे़ शहरो के पास जैसेः मुम्बई, पुणे, बैंगलोर, मैसूर, चेन्नई, कलकत्ता और दिल्ली में होती है।
उचित वानस्पतिक बढ़वार और फूलों के समुचित विकास के लिए धूप वाला वातावरण सर्वोत्तम माना गया है। उचित जल निकास वाली बलूवार दोमट भूमि इसकी खेती के लिए उचित मानी गई है। भारत में 1,10,000 हैक्टेयर क्षेत्रफल में इसकी खेती की जाती है। इसकी खेती करने वाले मुख्य राज्य कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र है। पारम्परिक फूल जिनके गेंदा का लालबाग़ तीन चौथाई भाग है। जिस भूमि का पी.एच.मान 7 से 7.5 के बीच हो, वह भूमि गेंदें की खेती के लिए अच्छी रहती है। क्षारीय व अम्लीय मृदाए इसकी खेती के लिए बाधक पायी गई है|
बीज
संकर किस्मों में 700-800 ग्राम बीज प्रति हेक्टर तथा अन्य किस्मों में लगभग 1.25 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर पर्याप्त होता है। उत्तर प्रदेश में बीज मार्च से जून, अगस्त-सितंबर में बुवाई की जाती है |
सुगंध
गेंदे की सुगंध बहुत मंद गंध, कस्तूरी गंध, लकड़ी जैसी होती है।
मृदा (मिट्टी)
गेंदे की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। वैसे गहरी मृदा उर्वरायुक्त मुलायम जिसकी नमी ग्रहण क्षमता उच्च हो तथा जिसका जल निकास अच्छा हो उपयुक्त रहती है। विशेष रूप से बलुई-दोमट मृदा जिसका पी.एच. 7.0-7.5 सर्वोतम रहती है।
जलवायु
गेंदे की खेती संपूर्ण भारतवर्ष में सभी प्रकार की जलवायु में की जाती है। विशेषतौर से शीतोषण और सम-शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है। नमीयुक्त खुले आसमान वाली जलवायु इसकी वृध्दि एवं पुष्पन के लिए बहुत उपयोगी है लेकिन पाला इसके लिए नुकसानदायक होता है। इसकी खेती सर्दी, गर्मी एवं वर्षा तीनों मौसमों में की जाती है। इसकी खेती के लिए 14.5-28.6 डिग्री सैं. तापमान फूलों की संख्या एवं गुणवत्ता के लिए उपयुक्त है जबकि उच्च तापमान 26.2 डिग्री सैं. से 36.4 डिग्री सैं. पुष्पोत्पादन पर विपरीत प्रभाव डालता है।
किस्मों का चुनाव
1. अफ्रीकन गेंदा
पूसा नारंगी गेंदा, पूसा बसंती गेंदा, अलास्का, एप्रिकॉट, बरपीस मिराक्ल, बरपीस ह्नाईट, क्रेकर जैक, क्राऊन ऑफ गोल्ड, कूपिड़, डबलून, फ्लूसी रफल्स, फायर ग्लो, जियाण्ट सनसेट, गोल्डन एज, गोल्डन क्लाइमेक्स जियान्ट, गोल्डन जुबली, गोल्डन मेमोयमम, गोल्डन येलो, गोल्डस्मिथ, हैपिनेस, हवाई, हनी कॉम्ब, मि.मूनलाइट, ओरेन्ज जूबली, प्रिमरोज, सोबेरेन, रिवरसाइड, सन जियान्ट्स, सुपर चीफ, डबल, टेक्सास, येलो क्लाइमेक्स, येलो फ्लफी, येलोस्टोन, जियान्ट डबल अफ्रीकन ओरेन्ज, जियान्ट डबल अफ्रीकन येलो इत्यादि।
हाइब्रिड्स : अपोलो, क्लाइमेक्स, फर्स्ट लेडी, गोल्ड लेडी, ग्रे लेडी, मून सोट, ओरेन्ज लेडी, शोबोट, टोरियडोर, इन्का येलो, इन्का गोल्ड, इन्का ओरेज्न इत्यादि।
2. फ्रेन्च गेंदा
(अ) सिंगल : डायण्टी मेरियटा, नॉटी मेरियटा, सन्नी, टेट्रा रफल्ड रेड इत्यादि।
(ब) डबल : बोलेरो, बोनिटा, बा्रउनी स्कॉट, बरसीप गोल्ड नगेट, बरसीप रेड एण्ड गोल्ड, बटर स्कॉच, कारमेन, कूपिड़ येलो, एल्डोराडो, फोस्टा, गोल्डी, जिप्सी डवार्फ डबल्, हारमनी, लेमन ड्राप, मेलोडी, मिडगेट हारमनी, ओरेन्ज फ्लेम, पेटाइट गोल्ड, पेटाइट हारमनी, प्रिमरोज क्लाइमेक्स, रेड ब्रोकेड, रस्टी रेड, स्पेनिश ब्रोकेड, स्पनगोल्ड, स्प्री, टेन्जेरीन, येलो पिग्मी इत्यादि|
खाद्य एवं उर्वरक
सड़ी हुई गोबर की खाद : 15-20 टन प्रति हैक्टेयर
यूरिया : 600 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर
सिंगल सुपर फास्फेट : 1000 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर
म्यूरेट ऑफ पोटाश : 200 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर
सारी सड़ी हुई गोबर की खाद, फास्फोरस, पोटाश व एक तिहाई भाग यूरिया को मृदा तैयार करते समय अच्छी तरह मिला लें तथा यूरिया की बची हुई मात्रा का एक हिस्सा पौधे खेत में लगाने के 30 दिन बाद व शेष मात्रा उसके 15 दिन बाद छिड़काव करके प्रयोग करें।
बीज शैया तैयार करना:
गेंदे की पौध तैयार करने के लिए बीज शैया तैयार करें, जो कि भूमि की सतह से 15 सैं.मी. ऊॅंची होनी चाहिए ताकि जल का निकास ठीक ढंग से हो सके। बीज शैया की चौड़ाई 1 मीटर तथा लंबाई आवश्यकतानुसार रखें। बीज बुवाई से पूर्व बीज शैया का 0.2 प्रतिशत बाविस्टीन या कैप्टान से उपचारित करें ताकि पौधे में बीमारी न लग सके और पौध स्वस्थ रहे।
बीजों की बुवाई : अच्छी किस्मों का चयन कर बीज शइया पर सावधानीपूर्वक बुवाई करें। ऊपर उर्वर मृदा की हल्की परत चढ़ाकर, फव्वारे से धीरे-धीरे पानी का छिड़काव कर दें।
बीज दर : 800 ग्राम से 1 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर बीजों का अंकुरण 18 से 30 डिग्री सैं. तापमान पर बुवाई के 5-10 दिन में हो जाता है।
बुवाई का समय
पुष्पन ऋतु |
बीज बुवाई का समय |
पौध रोपण का समय |
वर्षा |
मध्य - जून |
मध्य - जुलाई |
सर्दी |
मध्य - सितम्बर |
मध्य – अक्तूबर |
गर्मी |
जनवरी - फरवरी |
फरवरी - मार्च |
पौध रोपण :
अच्छी तरह तैयार क्यारियों में गेंदे के स्वस्थ पौधों को जिनकी 3-4 पत्तियां हों पौध रोपण हेतु प्रयोग करें। जहां तक संभव हो पौध रोपाई शाम के समय ही करेुं तथा रोपाई के पश्चात् चारों तरफ मिट्टी को दबा दें ताकि जड़ों में हवा न रहं एवं हल्की सिंचाई करें।
पौधे से पौधे की दूरी
सिंचाई
गेंदा एक शाकीय पौधा है। अत: इसकी वानस्पतिक वृध्दि बहुत तेज होती है। सामान्य तौर पर यह 55-60 दिन में अपनी वानस्पतिक वृध्दि पूरी कर लेता है तथा प्रजनन अवस्था में प्रवेश कर लेता है। सर्दियों में सिंचाई 10-15 दिन के अंतराल पर तथा गर्मियों में 5-7 दिन के अंतराल पर करें।
वृध्दि नियामकों का प्रयोग
पौधों की रोपाई के चार सप्ताह बाद एस ए डी एच का 250-2000 पी.पी.एम. पर्णीय छिड़काव करने से पौधों में समान वृध्दि पौधे में शाखाओं के बढ़ने के साथ ही फूलों की उपज व गुणवत्ता भी बढ़ती है।
पिंचिंग (शीर्ष कर्तन)
पौधे के शीर्ष प्रभाव को खत्म करने के लिए पौध रोपाई के 35-40 दिन बाद पौधों को ऊपर से चुटक देना चाहिए जिससे पौधों की बढ़वार रूक जाती है। तने से अधिक से अधिक संख्या में शाखाएं प्राप्त होती है तथा प्रति इर्का क्षेत्र में अधिक से अधिक मात्रा में फूल प्राप्त होते हैं।
खरपतावार नियंत्रण
खरपतवार पौधों की उपज व गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। क्योंकि खरपतवार मृदा से नमी व पोषण दोनों चुराते हैं तथा कीड़ो एवं बीमारियों को भी शरण देते हैं। अत: 3-4 बार हाथ द्वारा मजदूरों से खरपतवार निकलवा दें तथा अच्छी गुढ़ाई कराएं।
खरपतवारों का रासायनिक नियंत्रण भी किया जा सकता है। इसके लिए एनिबेन 10 पौण्ड, प्रोपेक्लोर और डिफेंनमिड़ 10 पौंड प्रति हैक्टेयर सुरक्षित एवं संतोषजनक है।
फूलों की तुड़ाई : पूरी तरह खिले फूलों को दिन के ठण्डे मौसम में यानि कि सुबह जल्दी या शाम के समय सिंचाई के बाद तोड़े ताकि फूल चुस्त एवं दूरुस्त रहें।
पैकिंग : ताजा तोड़े हुए फूलों को पॉलीथीन के लिफाफों, बांस की टोकरियों या थैलों में अच्छी तरह से पैक करके तुरंत मण्डी भेजें।
उपज : अफ्रीकन गेंदें से 20 - 22 टन ताजा फूल तथा फेंच गेंदे से 10 - 12 टन ताजा फल प्रति हैक्टेयर औसत उपज प्राप्त होती है।
कीट एवं व्याधियां
व्याधियां व रोकथाम
गेंदे के फ़ायदे
स्रोत:
हरित गृह (ग्रीन हाउस) प्रौद्योगिकी का मुख्य उद्देश्य सालों भर सफलतापूर्वक अच्छे किस्म के पौधों को बढ़ने के लिए उचित व संवर्द्धनीय वातावरण उपलब्ध कराना है। पश्चिमी देशों में मौसम की स्थिति सामान्यतया मृदु रहती है। प्लास्टिक गृहों (पोलि हाउस) के अंदर फल, फूल और सब्जियों का उपज सामान्य पहल या कार्य है। हरित गृह (ग्रीन हाउस) संरचना का उपयोग सामान्यतया गैर मौसमी बागवानी फसलों को उगाने में किया जाता है जिसका सामान्य स्थितियों में उपज संभव नहीं होता। हरित गृह (ग्रीन हाउस) सालों भर नियमित रूप से फल, फूल और सब्जियों की आपूर्ति को सुनिश्चित करता है। देश में विविध प्रकार के कृषि कार्य को बढ़ावा देने के लिए उसके अनुकूल मौसम की स्थिति बनाये रखने के लिए प्लास्टिक हरित गृह तकनीक जरूरी है।
हरित गृह (ग्रीन हाउस) एक प्रकार का ढाँचा होता है जो पारदर्शी से अपारदर्शी सामग्री जैसे - निम्न घनत्व वाला पोलि एथीलिन (एलडीपीई), एफ.आर.पी. पोलि कार्बोनेट से ढका होता है। ये पारदर्शी-अपारदर्शी सामग्री सौर्य विकिरण को भीतर आने तो देती लेकिन उसके भीतर स्थित वस्तुओं से निकलने वाले तापीय विकरण को बाहर जाने से रोकता है। यह पौधों के विकास के लिए उचित वातावरण उत्पन्न करता है। दिन के समय सूर्य से प्राप्त ऊर्जा, हरित गृह के भीतर ताप में बदल जाता जिसका पौधों के सामान्य श्वसन क्रिया के दौरान पानी के वाष्पीकरण में प्रयोग किया जाता है। पौधों के विकास को बहुत सारे प्रतिमानक जैसे- प्रकाश, गर्मी, ऊर्जा, कार्बन डायऑक्साइड व आर्द्रता प्रभावित करते हैं, जिन्हें इस प्रकार के ढाँचों में नियंत्रित किया जा सकता है।
हरित गृह (ग्रीन हाउस) के निर्माण पर आने वाली लागत ढकने वाली सामग्री (चाहे वह कठोर हो या लचीला) के चयन जैसे जी.आई पाइप, एम.एस. ऐंगल, फाइबर शीशा से युक्त पोलिस्टर, शीशा, उगलिक (एक्रिलिक) इत्यादि पर निर्भर करता है। इसके अलावे, हरित गृह की स्थापना का लागत उसे ढकने के लिए प्रयुक्त सामग्री पर भी निर्भर करता है।
हालांकि ऊपर बताये गये सामग्री से निर्मित हरित गृह काफी खर्चीला हो जाता है जो सामान्य भारतीय किसान की पहुँच से बाहर है। इस समस्या के समाधान के लिए ऐसे हरित गृह निर्माण की व्यवस्था की गई है जो किसानों के आमदनी में संभव हो। इसके लिए पूरी तरह जाँचा-परखा कम लागत वाला लकड़ी का हरित गृह बनाया गया है। यह ढाँचा किसी प्रकार के ढकने वाले सामग्री- फिल्म प्लास्टिक चादर, छायादार जाल, यूवी पोषित निम्न घनत्व वाला पोलि एथलीन फिल्म चादर के लिए उपयुक्त है। इस तरह के हरित गृह के निर्माण की प्रक्रिया नीचे बताई गई है, जिसमें हरित गृह के उपयोगकर्ता या किसान हरित गृह के भीतर विभिन्न फसलों को उगाने के लिए अधिक से अधिक जगह का उपयोग कर सकते हैं।
इन हरित गृहों के अंदर उगाये गये पौधों से प्राप्त परिणाम बताता है कि यह लघु और सीमान्त किसानों के लिए साध्य या उपयोगी प्रौद्योगिकी हो सकता है। इसका उपयोग कर किसान अधिक मात्रा में सब्जी के साथ अन्य बेमौसमी फसल उगा सकते हैं।
35 फीट X 20 फीट आकार के लकड़ी के हरित गृह (ग्रीन हाउस) निर्माण प्रक्रिया
जरूरी सामग्री
1. लकड़ी का खंभा
लकड़ी के खंभा का चयन इस ढाँचे की मजबूती में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके लिए युकेलिप्टस का खंभा सबसे अच्छा विकल्प है। इसके कई फायदे हैं क्योंकि इसमें दीमक और कीड़े लगने की संभावना काफी कम होती है। इससे अधिक, जब इनके खंभे को गाड़ा जाता तो ये पूरी तरह सुरक्षित रहता और इसका नीचला हिस्सा का छिलका भी अलग नहीं होता।
इसके लिए, सामान्यतया दो आकार के लकड़ी के खंभा का उपयोग किया जाता। एक 7-10 सें.मी. के बड़े व्यास वाला और दूसरा लगभग 5 सेंमी व्यास वाला। बड़े आकार के तना का उपयोग मुख्य ढाँचा के लिए जबकि छोटे आकार वाले तनों का उपयोग सहायक ढाँचा के लिए किया जाता है।
जरूरी खंभों की संख्या
बड़े व्यास वाले खंभे - 21
छोटे व्यास वाले खंभे- 34
खंभे की कुल संख्या - 55
जी. आई. तार
4 मिली मीटर व्यास वाले जी.आई. तार का उपयोग मुख्य ढाँचे से बाँस की छड़ी या बत्ती को बाँधने में किया जाता है।
कुल जी.आई. तार की जरूरत - 2 किलो ग्राम
कील
लम्बे आकार वाले कील का उपयोग लकड़ी के मुख्य खंभे से सहायक खंभे को जोड़ने में किया जाता है।
7 सें.मी. आकार के जरूरी कील या काँटी - 3 किलो ग्राम
यूवी पोषित कम घनत्व वाला पोलि एथलीन फिल्म
यह ढाँचा किसी प्रकार के हरित गृह आच्छादन सामग्री के लिए उपयुक्त है। निम्न घनत्व वाला पोलि एथलीन फिल्म (एल.डी.पी.ई.एल) विश्वभर में हरित गृह में सामान्यतया में उपयोग किया जाता है। इससे अधिक, यह कम खर्चीला है और इसे लगाना भी आसान है। भारत में निम्न घनत्व वाले पोलि एथलीन फिल्म इंडियन पेट्रो केमिकल्स लि. द्वारा तैयार किया जाता है जिसकी कई विशेषताएँ हैं और वह लकड़ी निर्मित हरित गृह के लिए उपयुक्त ढकने वाली सामग्री है। अपने अनुभव में हमने पाया है कि इंडियन पेट्रो केमिकल्स लि. द्वारा निर्मित एल.डी.पी.ई. फिल्म में कई विशेषताएँ हैं और इस ढकने वाली सामग्री के निर्माण में पौधों की वृद्धि को प्रभावित करने वाले - प्रकाश, ताप या ऊर्जा, कार्बन डायऑक्साइड व संबंधित आर्द्रता जैसे प्रतिमानक का पूरी तरह पालन किया गया है।
जरूरी कुल फिल्म
भूमि या तल के कुल क्षेत्रफल से 2.48 गुणा बड़ा कम घनत्व वाले यू.वी. फिल्म, पोलि एथीलीन फिल्म की जरूरत होती है। जैसे यदि आप 35 फीट X 20 फीट आकार = 700 वर्ग फीट का हरित गृह निर्माण करना चाहते हैं तो उसके लिए आपको 1736 वर्ग फीट यू.वी. फिल्म की जरूरत होगी। इसकी मोटाई 200 माइक्रोन व वजन लगभग 30 किलो ग्राम होगा।
कोलतार या अलकतरा - 2 लीटर
कम घनत्व वाले पोलि एथलीन फिल्म रोल
(10 सें.मी. चौड़ाई वाला)
यू.वी. पोषित एल.डी.पी.ई. फिल्म से लकड़ी के खंभे के सीधा सम्पर्क को रोकने के लिए 10 सें.मी. चौड़ाई वाला कम घनत्व वाला पोलि एथलीन फिल्म रोल या बचा हुआ यू.वी. पोषित एल.डी.पी.ई. फिल्म रोल तैयार करें और उसे खंभा, जोड़ व तार में लपेट दें।
कुल जरूरी फिल्म - 3 किलो ग्राम
प्लास्टिक की रस्सी
प्लास्टिक रस्सी का उपयोग एल.डी.पी.ई. शीट के ऊपर ढाँचा के आधार और रस्सी के बीच कुछ रखने के लिए किया जाता है। यह किसी प्रकार के हवा के तेज झोंके से शीट को होने वाले खतरों से बचाव करता है।
जरूरी प्लास्टिक रस्सी - 5 किलो ग्राम
बाँस की छड़ी या बत्ती
बाँस की छड़ी का उपयोग मुख्य ढाँचा से सहायक ढाँचा को जोड़ने में किया जाता है, जिसपर एल.डी.पी.ई. शीट रखा जाता है।
जरूरी बाँस की छड़ी की कुल संख्या - 30
बाँधने या कसने वाला कील या नट
कम घनत्व के पोलि-एथलीन फिल्म से ढकने हेतु 35 X 20 फीट के लकड़ीनुमा हरित गृह निर्माण प्रक्रिया
कदम -1
स्थान का चयन और हरित गृह अनुस्थापन या अभिविन्यास
कदम -2
मुरुगप्पा चेट्टीयार शोध केन्द्र में बनाये गये हरित गृह ढाँचा के निम्नलिखित लाभ हैं -
विशेष जानकारी के लिए निम्न पता पर संपर्क करें-
निदेशक, श्री एमएम मुरुगप्पा चेट्टियार रिसर्च सेंटर,तारामणि
चेन्नई -600113, तमिलनाडु, भारत.
फोन: 044-22430937
फैक्स 044-224342688
वेबसाइटः www.amm-mcrc.org
स्रोत: बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, काँके, राँची- 834006
http://www.dainet.org
सेंटर ऑफ साइंस फॉर विलेजेस, मगन संग्रहालय, वर्धा– 442001, महाराष्ट्र
श्री ए. एम.एम. मुरुगप्पा चेट्टियार शोध केन्द्र, चेन्नई
अंतिम बार संशोधित : 2/21/2020
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